जय श्री ऋषभ जिनेन्दा, नाश करो मेरे दुखदन्दा ॥टेक॥मातु मरुदेवी के प्यारे, पिता नाभि के दुलारे, वंश तो इक्ष्वाकु जैसे नभ बीच चन्दा ॥1॥कनक वरन तन, मोहत भविक जन, रवि शशि कोटि लाजैं, लाजे मकरन्दा ॥2॥दोष तौ अठारा नासे, गुन छिआलीस भासे, अष्ट-कर्म काट स्वामी, भये निरफन्दा ॥3॥चार ज्ञानधारी गनी, पार नहिं पावें मुनी,'दौलत' नमत सुख चाहत अमन्दा ॥4॥
अर्थ : हे ऋषभ जिनेन्द्र ! आपकी जय हो। हे स्वामी ! मेरे दुःख दूर कीजिए ।
हे प्रभो ! आप माता मरुदेवी के प्यारे है, पिता नाभिराय के दुलारे हैं। आपका वंश इक्ष्वाकु है और आप इस जगत में ऐसे शोभायमान हैं जैसे कि आकाश में चन्द्रमा । आपका शरीर स्वर्ण के समान वर्ण वाला है जिसे देखकर भव्यजीव मोहित (आकर्षित या हर्षित) हो जाते हैं, करोड़ों सूर्य-चन्द्र लज्जित हो जाते है और पुष्पों का रस भी लज्जित हो जाता है ।
हे स्वामी ! आपने अठारह दोषों! का नाश कर दिया है, छियालीस गुणों को प्रकट कर लिया है और आप आठों कर्मों का नाश करके पूर्णतः मुक्त भी हो गए हैं ।
कविवर दौलतराम कहते हैं कि हे स्वामी ! चार ज्ञान के धारक गणधर और मुनि भी आपका पार नहीं पा सकते हैं, फिर भी मैं अनन्त सुख की अभिलाषा करता हुआ आपको नमस्कार करता हूँ।