चन्द्रानन जिन चन्द्रनाथ के, चरन चतुर-चित ध्यावतुमहैं ।कर्म-चक्र-चकचूर चिदातम, चिनमूरत पद पावतुमहैं ॥टेक॥हाहा-हूहू-नारद-तुंबर, जासु अमल जस गावतुमहैं ।पद्मा सची शिवा श्यामादिक, करधर बीन बजावतुमहैं ॥१॥बिन इच्छा उपदेश माहिं हित, अहित जगत दरसावतुमहैं ।जा पदतट सुर नर मुनि घट चिर, विकट विमोह नशावतुमहैं ॥२॥जाकी चन्द्र बरन तनदुतिसों, कोटिक सूर छिपावतुमहैं ।आतमजोत उदोतमाहिं सब, ज्ञेय अनंत दिपावतुमहैं ॥३॥नित्य-उदय अकलंक अछीन सु, मुनि-उडु-चित्त रमावतुमहैं ।जाकी ज्ञानचन्द्रिका लोका-लोक माहिं न समावतुमहैं ॥४॥साम्यसिंधु-वर्द्धन जगनंदन, को शिर हरिगन नावतुमहैं ।संशय विभ्रम मोह 'दौल' के, हर जो जगभरमावतुमहैं ॥५॥
अर्थ : चन्द्रमा के समान मुख है जिनका ऐसे श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र के चरणों का विवेकीजन ध्यान करते हैं, जिससे वे कर्मचक्र का नाशकर शुद्ध ज्ञानमयी आत्मा का पद - मोक्ष को पाते हैं।
गंधर्व जाति के (हाहा, हूहू, नारद और तुंबर) देव आपका यशगान करते हैं । लक्ष्मी, इन्द्राणी, शिवा, श्यामा आदि देवियाँ हाथों में बीन लेकर बजा रही हैं।
जिनका उपदेश बिना किसी इच्छा के, नियोगवश-जगत को हित-अहित का भेद बतानेवाला है, जिनके चरणरूपी किनारे का आश्रय सुर- नर और मुनिगण के हृदय से विकट-कठिन विमोह का स्थायीरूप से नाश करनेवाला है।
जिनके शुभ्र वर्ण शरीर की सुन्दर कान्ति करोड़ों सूर्यों के प्रकाश को भी। छुपानेवाली हैं। जिनके आत्मा की ज्योति के प्रकाश में अनत ज्ञेय (जाननयोग्य पदार्थ) दीपायमान हो रहे हैं; प्रकाशित हो रहे हैं।
वे चन्द्रप्रभ सदैव उदित हैं, कभी अस्त नहीं होते: कलंकरहित हैं, अक्षय हैं। मुनिरूपी तारागण का चित्त जिनमें सदा लगा रहता है, उनके ज्ञान की चाँदनी लोक व अलोक में भी सीमित नहीं रह पा रही है अर्थात् सर्वत्र व्याप रही है।
वे चन्द्रप्रभ समतारूपी समुद्र को बढ़ानेवाले, जगत को आनंदित करनेवाले हैं / उनको देवगण भी शीश नमाते हैं । दौलतराम विनती करते हैं कि जगत में भ्रमण करानेवाले, भटकानेवाले संशय, त्रिमोह व विभ्रम का हरण करो, नाश करो।