चित चिंतकैं चिदेश, कब अशेष पर वमूँ ।दुखदा अपार विधि दुचार की चमूँ दमूँ ॥टेक॥तजि पुण्य-पाप थाप, आप-आप में रमूँ ।कब राग आग शर्म बाग, दागिनी शमूँ ॥१॥दृग ज्ञान भान तें मिथ्या, अज्ञान तम दमूँ ।कब सर्व जीव प्राणी भूत, सत्व सौं छमूँ ॥२॥जल मल्ल लिप्त कल सुकल, सुबल्ल परिनमूँ ।दल के त्रिशल्ल मल्ल कब अटल्ल पद पमूँ ॥३॥कब ध्याय अजर अमर को फिर न भवविपिन भ्रमूँ ।जिन पूर कौल दौल को यह, हेत हौं नमूँ ॥४॥
अर्थ : ऐसा अवसर कब आवे कि मैं अपने चित्त में अपनी आत्मा का चिंतवन कर शेष सारे पर को त्याग दूँ अर्थात् समस्त पर को, अन्य को छोड़कर कब मैं अपने स्वरूप में लीन हो जाऊं और अपार दु:ख को देने वाली आठ कर्मों की सेना का दमन करूँ ।
पाप-पुण्य की स्थिति को छोड़कर मैं अपने आप में रमण करूं और शांति देने वाले उद्यान को जलाने वाली इस रागरूपी आग का शमन करूँ ।
दर्शन और ज्ञान रूपी सूर्य से अज्ञान, मिथ्यात्व के अंधकार को नाश करूँ और जीवों के प्राणमय तत्व को समझकर क्षमा करूँ व स्वयं क्षमा चाहूँ अर्थात् समता धारण करूँ ।
जल, मल से लिपट इस शरीर का बलशाली होकर अच्छा परिणमन हो, परमौदारिक स्वरूप हो और तीन शल्य - माया, मिथ्यात्व और निदान का दमन कर, नाशकर मोक्षपद को प्राप्त करूँ ।
कब इस जन्म मृत्यु रहित आत्मा का ध्यान करूँ जिससे संसार-वन के भ्रमण से मुक्त हो जाऊं। दौलतरामजी कहते हैं कि जो अपने दिव्य-वचन और सत्य से भरे पूरे हैं, ऐसे जिनेन्द्र को मैं इस हेतु नमन करता हूँ ।