छांडि दे या बुधि भोरी, वृथा तनसे रति जोरी ॥टेक॥यह पर है न रहे थिर पोषत, सकल कुमल की झोरी ।यासौं ममता कर अनादितैं, बंधो कर्मकी डोरी ।सहै दु:ख जलधि हिलोरी ॥१ छांडि॥यह जड़ है तू चेतन यौं ही, अपनावत बरजोरी ।सम्यक्दर्शन ज्ञान चरण निधि, ये हैं संपति तोरी ।सदा विलसौ शिवगोरी ॥२ छांडि॥सुखिया भये सदीव जीव जिन, यासौं ममता तोरी ।'दौल' सीख यह लीजे पीजे, ज्ञानपियूष कटोरी ।मिटै परचाह कठोरी ॥३ छांडि॥
अर्थ : मानव ! तुम अपनी मिथ्या धारणा दूर करो और शरीर से व्यर्थ राग न करो ।
यह शरीर परकीय है । पालन-पोषण होने पर भी स्थिर रहने वाला नहीं है । समस्त प्रकार की गंदगी का केन्द्र है । मानव! तुम इस शरीर से ममत्व रखने के कारण ही अनादिकाल से कर्म-जाल में जकड़े हुए हो और दुःखों को उठा रहे हो ।
भोले मानव! क्या तुझे यह मालूम नहीं है कि शरीर जड़मय है और तू चेतन्यमय है । जब ये दोनों बिलकुल पृथक्-पृथक् वस्तुएं हैं तो तू हठात् इन दोनों का गठबंधन क्यों करना चाहता है ? सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र यह निधियां ही तेरी आात्मीय संपत्ति हैं । इसलिए अन्य समस्त प्रकार की सांसारिक माया को छोड़कर तू इस संपत्ति को प्राप्त करने का ही प्रयत्न कर और 'शिव-गोरी' के साथ सुख भोग ।
मानव एक बात और ध्यान रखना । जिन जीवों ने अपने शरीर से सदा के लिए आसक्ति तोड़ ली है, वे चिरकाल के लिए सुखी हो गये । तू मेरी एक सीख मान -- ज्ञान-रूपी अमृत का आकण्ठ पान करके अपने को खूब तृप्त कर ले, जिससे तेरी कठोर पर-चाह नष्ट हो जाय ।