जाऊँ कहाँ तज शरन तिहारे ॥टेक॥चूक अनादितनी या हमरी, माफ करो करुणा गुन धारे ॥1॥डूबत हों भवसागरमें अब, तुम बिन को मुह वार निकारे ॥2॥तुम सम देव अवर नहिं कोई, तातै हम यह हाथ पसारे ॥3॥मो-सम अधम अनेक उधारे, वरनत हैं श्रुत शास्त्र अपारे ॥4॥'दौलत' को भवपार करो अब, आयो है शरनागत थारे ।जाऊँ कहाँ तज शरन तिहारे ॥5॥
अर्थ : हे प्रभु! मैं आपकी शरण को छोड़कर अन्यत्र कहाँ जाऊँ?
मैं अब तक आपकी शरण में नहीं आया - अनादि काल से मेरी यह ही चूक/गलती रही है । हे करुणागुण के धारक! इसके लिए मुझे क्षमा करो।
मैं भव-सागर (संसार-समुद्र) में डूब रहा हूँ, आपके अतिरिक्त कौन है जो मुझे इससे बाहर निकाल सके !
आपके समान अन्य कोई देव नहीं है, जिसके आगे हम हाथ पसारकर याचना कर सकें ।
आपने मेरे समान अनेक पापियों को पार उतार दिया है, गुरु और शास्त्र इसका वर्णन करते हैं।
दौलतराम कहते हैं कि मुझे भी अब भव से / संसार से / जन्म-मरण की भटकन से पार लगाइए, मुक्त कीजिए। मैं अब आपकी शरण में आया हूँ।