जिन राग द्वेष त्यागा, वह सतगुरु हमारा ।तज राज-रिद्धि तृणवत, निज काज सम्हारा ॥टेक॥रहता है वह वनखंड में, धरि ध्यान कुठारा ।जिन मोह महा तरु को, जड़ मूल उखारा ॥1॥सर्वांग तज परिग्रह, दिग्-अम्बर है धारा ।अनंत ज्ञान गुण समुद्र, चारित्र भंडारा ॥2॥शुक्लाग्नि को प्रजाल के, वसु कानन है जारा ।ऐसे गुरु को 'दौल' है, नमोस्तु हमारा ॥3॥
अर्थ : जिन्होंने राग और द्वेष को छोड़ दिया , त्याग दिया वे ही हमारे पूज्य गुरु हैं , साधु हैं । जिन्होंने अपने राज - पाट रिद्धि को तिनके के समान छोड़ दिया और अपने आत्म हित के लिए स्वरूप चिंतन में लीन हो गए , जुट गए , वे ही हमारे गुरु हैं ।
वे साधु जो जंगल में अपना निवास करते हैं और गहन व कठोर ध्यान में डूबते हैं । वे मोह रूपी वृक्ष को जड़-मूल से उखाड़ने को तत्पर हैं , वे ही हमारे गुरु हैं ।
सब प्रकार का परिग्रह छोड़कर , दिगम्बर भेष जिनने धारण किया और जो अनंत ज्ञान गुण के समुद्र हैं , अगाध चारित्र के भंडार हैं , वे ही हमारे गुरु हैं।
वे शुक्लध्यान रूपी अग्नि को जलाकर , आठ कर्मों के इस वन को जला रहे हैं ।दौलतराम कहते हैं ऐसे साधुजन को हमारा नमन है।