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श्री
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ज्ञानी जीव निवार भरमतम
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ज्ञानी जीव निवार भरमतम, वस्तुस्वरूप विचारत ऐसैं ॥टेक॥

सुत तिय बंधु धनादि प्रगट पर, ये मुझतैं हैं भिन्नप्रदेशैं ।
इनकी परनति है इन आश्रित, जो इन भाव परनवैं वैसे ॥१॥

देह अचेतन चेतन मैं, इन परनति होय एकसी कैसैं ।
पूरनगलन स्वभाव धरै तन, मैं अज अचल अमल नभ जैसैं ॥२॥

पर परिनमन न इष्ट अनिष्ट न, वृथा रागरुष द्वंद भयेसैं ।
नसै ज्ञान निज फँसै बंधमें, मुक्त होय समभाव लयेसैं ॥३॥

विषयचाहदवदाह नसै नहिं, विन निज सुधा सिंधुमें पैसैं ।
अब जिनवैन सुने श्रवननतैं, मिटे विभाव करूं विधि तैसैं ॥४॥

ऐसो अवसर कठिन पाय अब, निजहितहेत विलम्ब करेसैं ।
पछताओ बहु होय सयाने, चेतन 'दौल' छुटो भव भयसैं ॥५॥



अर्थ : ज्ञानी जीव अपने सभी भ्रमरूपी अंधकार का, अनिश्चितता का नाशकर इस प्रकार वस्तु-स्वरूप का चिंतवन करते हैं कि --

पुत्र, स्त्री, बंधुजन, धन-संपत्ति आदि सब स्पष्टत: मुझसे भिन्न हैं, इनके व मेरे प्रदेश भिन्न-भिन्न हैं। उनका परिणमन उनका है और उनके ही आश्रित है, जैसे उनके भाव हैं उनका परिणमन भी वैसा ही है, उसी प्रकार का है। परन्तु मुझसे सर्वथा भिन्न है ।

यह देह जड़-पुद्गल है और मैं चेतन; इनकी दोनों की परिणति एक-सी कैसे हो सकती है ? यह देह पुद्गल-जड़ है अत: इसका स्वभाव पुद्गल के अनुरूप अर्थात्‌ गलना व पुरना ही है, जब कि मैं आकाश की भाँति अजन्मा, शक्तिवाला, स्थिर, मलरहित व निर्मल हूँ।

पर का परिणमन मेरे लिए न किसी भाँति इष्ट है और न अनिष्ट ! अपितु राग-ट्वेष के द्वंद्व के कारण वह सर्वथा निरर्थक है जिसमें फंसने पर कर्मबंध होता है और अपने ज्ञान की हानि होती है जबकि उनसे (राग-द्वेषमय पर-परिणति से) मुक्त होने पर समता-समभाव होता है (मुक्ति मिलती है)।

बिना अपने आत्मा की ओर गति किये, बिना आनंद-सागर में प्रवेश किये विषयों की चाहरूपी आग की तपन मिटती नहीं । अब श्री जिनेन्द्रदेव का उपदेश कानों से सुनकर ऐसी क्रिया करूँ कि जिससे विभाव मिट जावे।

ऐसा दुर्लभ अवसर बड़ी कठिनाई से जो मिला है, उसमें अपने ही हित के लिए यदि विलम्ब किया गया तो हे सयाने ! तुझे पछताना पड़ेगा। दौलतरामजी कहते हैं कि हे चेतन, अब तुम भव-भय से छुटकारा पा लो (भव-बंधन से मुक्त होवो) ।
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