अहो ! नमि जिनप नित नमत शत सुरप, कन्दर्प-गज-दर्प नाशन प्रबल पन-लपन ॥ नाथ ! तुम बानि पय पान जे करत भवि,नसें तिनकी जरा-मरन-जामन-तपन ॥अहो शिव-भौन ! तुम चरन चिन्तौन जे,करत तिन जरत भावी दुखद भव-विपन ॥हे भुवनपाल ! तुम विशद गुन-माल उर,धरें ते लहें टुक काल में श्रेय पन ॥अहो गुन-तूप ! तुम रूप चख सहस करि,लखत सन्तोष-प्रापति भयो नाकप न ॥अज ! अकल ! तज सकल, दुखद परिगह कुगह,दुःसह परिसह सही धार व्रत-सार पन ॥पाय केवल सकल लोक करवत् लख्यो,अख्यो वृष द्विधा सुनि नसत भ्रम-तम-झपन ॥नीच कीचक कियो मीच तैं रहित जिम,दास को पास ले नाश भव वास पन ॥
अर्थ : हे नमिनाथ भगवान ! आपको सदा सौ इन्द्र नमस्कार करते हैं। आप कामदेव रूपी हाथी के दर्प को नष्ट करने के लिए शक्तिशाली सिंह हैं ।
हे स्वामी ! जो भव्य जीव आपके वचनरूपी शीतल जल का पान करते हैं, उनकी जन्म-जरा-मरण रूपी तपन समाप्त हो जाती है ।
अहो, मोक्ष के मन्दिर ! जो जीव आपके चरणों का चिन्तवन करते हैं, उनका भविष्यकालीन दुःखदायी संसाररूपी वन जल जाता है ।
हे तीन लोक के स्वामी जो जीव आपके निर्मल गुणों की माला को अपने हृदय में धारण करते हैं, वे अल्पकाल में उत्तम कल्याण (मोक्ष) को प्राप्त करते है ।
हे गुणों के स्तूप ! इन्द्र आपके रूप को हजार आँखों से देखकर भी तृप्त नहीं हुआ था ।
हे अज ! हे अकल ! आपने सम्पूर्ण परिग्रह का, जो महा दुखद खोटे ग्रहों के समान था, त्याग कर दिया था, ओर उत्तम पच महाव्रतों को धारण कर कठिन परिषहों को सहन किया था ।
उसके बाद आपने सम्पूर्ण विश्व को अपने हाथ के समान देख लिया और फिर दो प्रकार के धर्म (मुनिधर्म व श्रावकधर्म) का उपदेश दिया, जिसे सुनकर भ्रमरूपी घना अन्धकार नष्ट हो जाता है ।
हे नमिनाथ स्वामी ! जिस प्रकार आपने अधम प्राणी कीचक को मृत्यु से रहित (अमर) कर दिया था, उसी प्रकार आप मुझे भी मेरे पंच-परावर्तन रूप संसार को नप्ट करके अपने पास ले लीजिए ।