प्यारी लागै म्हाने जिन छवि थारी ॥टेक॥परम निराकलपद दरसावत, वर विरागताकारी ।पट भूषन बिन पै सुन्दरता, सुर-नर-मुनि-मनहारी ॥प्यारी लागै म्हाने जिन छवि थारी ॥१॥जाहि विलोकत भवि निज निधि लहि, चिरविभावता टारी ।निरनिमेषतैं देख सचीपती, सुरता सफल विचारी ॥प्यारी लागै म्हाने जिन छवि थारी ॥२॥महिमा अकथ होत लख ताकी, पशु सम समकितधारी ।'दौलत' रहो ताहि निरखन की, भव भव टेव हमारी ॥प्यारी लागै म्हाने जिन छवि थारी ॥३॥
अर्थ : हे जिनेन्द्रदेव ! मुझे आपकी मुद्रा बहुत प्रिय लगती है।
आपकी मुद्रा परम निराकुल पद के दर्शन कराती है, सच्चा वैराग्य उत्पन्न कराती है तथा वस्त्राभूषण से रहित होते हुए भी इतनी सुन्दर है कि देव, मनुष्य और मुनियों के भी मन को हर लेती है।
हे जिनेन्द् देव ! आपकी मुद्रा की देखकर भव्यजीव अपनी आत्मिक सम्पत्ति को प्राप्त कर लेते हैं और अपनी अनादिकालीन विभाव-परिणति का त्याग कर देते है। इन्द्र भी आपकी मुद्रा को अपलक दृष्टि से देखता हुआ अपने देवत्व को सफल समझता है।
आपकी मुद्रा की महिमा अकथनीय है। पशु-सदृश अज्ञानी भी आपकी मुद्रा को देखकर सम्यग्दृष्टि हो जाते है।
कविवर दौलतराम कहते हैं कि हे जिनेन्द्रदेव ! मुझे हर जन्म में आपकी मुद्रा को देखने का अवसर (भाव) अवश्य प्राप्त हो ।