जय शिव-कामिनि-कन्त ! वीर भगवन्त अनन्त सुखाकर हैं ।विधि-गिरि-गंजन बुध-मन-रंजन, भ्रम-तम-भंजन भाकर हैं ॥जिन उपदेश्यो दुविध धर्म जो, सो सुर-सिद्ध-रमाकर हैं ।भवि-उर-कुमुदिन-मोदन भव-तप-हरन अनूप निशाकर हैं ॥परम विराग रहें जगतैं पै, जगत-जीव रक्षाकर हैं ।इन्द्र फणीन्द्र खगेन्द्र चन्द्र जग-ठाकर ताके चाकर हैं ॥ जासु अनन्त सुगुण मणिगण, नित गणते मुनिजन थाक रहैं ।जा प्रभु पद नव केवल लब्धि सु, कमला को कमलाकर हैं ॥जाके ध्यान-कृपान राग-रुष, पास-हरन समताकर हैं ।'दौल' नमें कर जोर हरन भव-बाधा शिवराधाकर हैं ॥
अर्थ : हे मोक्षरूपी स्त्री के स्वामी श्री महावीर भगवान ! आप अनन्त सुख के भण्डार हैं, आपकी जय हो। आप कर्मरूपी पर्वत को नष्ट करनेवाले, ज्ञानी जीवों के मन को प्रसन्न करनेवाले और भ्रमरूपी अन्धकार को नष्ट करनेवाले सूर्य हैं ।
आपने गृहस्थ और मुनि के भेद से दो प्रकार के धर्म का जो उपदेश दिया है वह स्वर्ग के वैभव और मोक्षरूपी लक्ष्मी को प्राप्त करानेवाला हैं । आप भव्यजीवों के हृदय-कमल को प्रसन्न करनेवाले और संसार के ताप को दूर करनेवाले अनुपम चन्द्रमा है ।
यद्यपि आप जगत से अत्यन्त विरागी रहते हैं, तथापि आप जगत के जीवों की रक्षा करनेवाले हैं । इन्द्र, नागेन्द्र, विद्याधर, चन्द्र जैसे जगत के स्वामी भी आपके सेवक हैं ।
बडे-वडे मुनि भी आपके अनन्त गुणरूपी मणि-समुदाय को नित्य गिनते-गिनते थक गये हैं। आपके चरण नव केवललब्धियों' की लक्ष्मी के लिए समुद्र के समान है। आपके ध्यान की तलवार राग-द्वेष के बन्धन को काटकर समता उत्पन्न करनेवाली हैं ।
कविवर दौलतराम कहते है कि हे महावीर भगवान ! आप संसार-दुख को दूर करनेवाले और मोक्षरूपी लक्ष्मी को प्रदान करनेवाले है। मैं हाथ जोडकर आपको नमस्कार करता हूँ ।