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जय श्री वीर जिन
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जय श्री वीर जिनवीर जिनचन्द,
कलुष-निकन्द मुनिहृद सुखकन्द ॥

सिद्धारथनन्द त्रिभुवन को दिनेन्द-चन्द,
जा वच-किरन भ्रम-तिमिर-निकन्द ।
जाके पद अरविन्द सेवत सुरेन्द्रवन्द,
जाके गुण रटत कटत भव-फन्द ॥

जाकी शान्तमुद्रा निरखत हरखत रिषि,
जाके अनुभवत लहत चिदानन्द ।
जाके घातिकर्म विघटत प्रगटत भये,
अनन्त दरश-बोध-वीरज-आनन्द ॥

लोकालोक-ज्ञाता पै स्वभावरत राता प्रभु,
जग को कुशलदाता त्राता अद्वन्द ।
जाकी महिमा अपार गणी न सके उचार,
'दौलत' नमत सुख चाहत अमन्द ॥



अर्थ : पापों को नष्ट करनेवाले और मुनियों के हृदय को अपार सुख देनेवाले श्री वीर जिनेन्द्र की जय हो, महावीर जिनेन्द्र की जय हो ।
श्री महावीर जिनेन्द्र राजा सिद्धार्थ के पुत्र है और तीनों लोकों के लिए ऐसे सूर्य-चन्द्र हैं जिनकी वचनरूपी किरणें भ्रमरूपी अन्धकार को समाप्त कर देती हैं । इन्द्र-समुदाय भी उनके चरण-कमलों का सेवन करते हैं। उनके गुणों के जाप से संसार के बन्धन कट जाते हैं ।
उनकी शान्त मुद्रा को देखकर ऋषिगण भी हर्षित होते है, तथा उनका अनुभव करने से चेतन्य क॑ आनन्द की प्राप्ति होती है। उनके चार घातिया कर्म नष्ट हो गये हैं और अनन्त-दर्शन, अनन्त-ज्ञान, अनन्त-वीर्य एवं अनन्त-सुख प्रकट हो गये है ।
वे सम्पूर्ण लोकालोक के ज्ञाता हैं, फिर भी अपने स्वभाव में पूर्णतया लीन हैं । वे जगत के प्राणियों को कुशलता प्रदान करनेवाले हैं और उनके सच्चे रक्षक हैं ।
कविवर दौलतराम कहते हैं कि श्री महावीर जिनेन्द्र की महिमा अपार है गणधर भी उसका उच्चारण नही कर पाते है; मैं अनन्त-सुख को चाहता हुआ उनको नमस्कार करता हूँ ।