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राचि रह्यो परमाहिं
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राचि रह्यो परमाहिं तू अपनो, रूप न जानै रे ॥टेक॥

अविचल चिनमूरत विनमूरत, सुखी होत तस ठानै रे ।
ये पर इनहिं वियोग योग में, यौं ही सुख दुख मानै रे ॥
तू अपनो रूप न जानै रे ॥१॥

चाह न पाये पाये तृष्णा, सेवत ज्ञान जघानै रे ।
विपतिखेत विधिवंधहेत पै, जान विषय रस खानै रे ॥
तू अपनो रूप न जानै रे ॥२॥

नर भव जिनश्रुतश्रवण पाय अब, कर निज सुहित सयानै रे ।
'दौलत' आतम ज्ञान-सुधारस, पीवो सुगुरु बखानै रे ॥
तू अपनो रूप न जानै रे ॥३॥



अर्थ : हे जीव ! तू पर में ही रुचि लगाए हुए है, तू अपने स्वरूप को नहीं पहचान रहा है / तू अचल स्थिर है, चिन्मय है, या अन्य कोई रूप नहीं है, तू मूर्त नहीं है, तू अपनी निज की अवस्था में ही सुखी रहता है।

तू देह को, धन को, भाई, पिता, पुत्र, माता इनको अपना जान रहा है। ये सब तुझसे अन्य हैं, पर हैं, इनके संयोग-वियोग में ही तू सुख व दु:ख मानता रहता है।

तू जो चाह करता है उसकी पूर्ति नहीं होती, तृष्णा बनी रहती है और तू। खोटे अर्थात् जघन्य ज्ञान की साधना करता है जो दुःखों को देनेवाले कर्मबंध का कारण है, ऐसे इंद्रिय विषय जो भोगों की खान हैं, की साधना करता है।

यह नरभव तुझे मिला है, अब जिनवाणी को, जिनेन्द्र की वाणी को सुनकर, समझकर अरे ज्ञानी ! तू अपना हित समझ ले, हित करले। दौलतराम कहते हैं कि सत्गुरु द्वारा कहा गया, बताया गया, उस आत्मज्ञानरूपी अमृतरस का पान करो।