हे जिन ! तेरो सुयश उजागर, गावत हैं मुनिजन ज्ञानी ।दुर्जय मोह महाभट जानें, निजवश कीने जगप्रानी ।सो तुम ध्यान-कृपान पानि गहि, ततछिन त्ताकी थिति भानी ॥सुप्त अनादि अविद्या निद्रा, जिन जन निज सुधि विसरानी ।ह्वै सचेत तिन निजनिधि पाई, श्रवन सुनी जब तुम वानी ॥मंगलमय तू जग में उत्तम, तुही शरण शिवमगदानी ।तुम पद सेवा परम औषधी, जन्म-जरा-मृत-गद हानी ॥तुमरे पंच कल्याणक माहीं, त्रिभुवन मोद दशा ठानी ।विष्णु विदम्बर जिष्णु दिगम्बर, मुनि शिव कह ध्यावत ध्यानी ॥सर्व द्रव्य गुण पर्यय परिणति, तुम सुबोध में नहिं छानी ।तातैं 'दौल' दास उर आशा, प्रगट करो निजरस-सानी ॥
अर्थ : हे जिनेन्द्रदेव ! आपके उज्ज्वल यश को महाज्ञानी मुनिराज भी इस प्रकार गाते हैं कि --
हे जिनेन्द्रदेव ! जो दुर्जेय है (जिसे जीतना बहुत मुश्किल है) ऐसे मोहरूपी महायोद्धा ने जगत के समस्त प्राणियों को अपने अधीन कर रखा है, किन्तु उसे आपने ध्यानरूपी कृपाण हाथ में लेकर तुरन्त नष्ट कर दिया है ।
हे देव ! जो जीव अनादि-अज्ञान की नींद में सोये हुए थे और अपने स्वरूप को भूले हुए थे, उन्होंने जब कानों से आपकी वाणी सुनी तो जाग्रत होकर अपनी सम्पत्ति को प्राप्त कर लिया। हे मोक्षमार्ग-प्रदाता जिनेन्द्रदेव ! इस जगत में एक आप ही मंगलमय हैं, आप ही उत्तम हैं और आप ही शरण हैं। आपके चरणों की सेवा ही जन्म-जरा-मृत्युरूपी रोग को नष्ट करने के लिए परम औषधि है ।
हे देव ! आपके पंचकल्याणकों में तीनों लोकों में आनन्द छा जाता है और बड़े-बडे ध्यानी लोग आपको विष्णु (ज्ञान की अपेक्षा सर्वव्यापक), विदांवर (श्रेष्ठ ज्ञानी), जिष्णु (विजयी), दिगम्वर, बुद्ध (केवलज्ञानी), शिव (परमकल्याण) को प्राप्ते आदि अनेक नामों से ध्याते हैं ।
कविवर दौलतराम कहते हैं कि हे जिनेन्द्रदेव ! आपके ज्ञान में समस्त द्रव्य-गुण-पर्याय की वात झलक रही है, कुछ भी गुप्त नहीं है; अतः आप मुझ सेवक की निजरस में समा जाने की हार्दिक अभिलाषा को शीघ्र पूरी कीजिए ।