हे जिन मेरी ऐसी बुधि कीजै ॥टेक॥राग-द्वेष दावानल तें बचि, समता रस में भीजै ॥1॥पर को त्याग अपनपो निज में, लाग न कबहूँ छीजै ॥2॥कर्म कर्मफल माँहि न राचै, ज्ञान सुधारस पीजै ॥3॥मुझ कारज के तुम कारण वर, अरज 'दौल' की लीजै ॥4॥
अर्थ : हे जिनेन्द्र देव ! मेरी ऐसी बुद्धि हो जिससे मै राग द्वेष रूपी अग्नि से बचकर समतारूपी रस में भीज जाऊं।
स्व से परे को पर हैं , अन्य हैं उसको छोड़कर मैं अपनी आत्मा में ही रमण करूं और वह आदत लाग मेरी कभी भी न छूटे, मेरी ऐसी बुद्धि हो ।
कर्म और उसके फल की ओर मेरी कभी रुचि न हो और मैं सदैव ज्ञानरुपी अमृत का पान करता रहूं अर्थात् अपने ज्ञानस्वरूप में सदा लीन रहूं , मेरी ऐसी बुद्धि हो ।
निज रूप की , स्वरूप की पहचान के लिए मुझे सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान व सम्यक्चारित्र की प्राप्ति हो । इसके लिए आप ही श्रेष्ठ कारण हो ; साधन हो अर्थात् आपका गुण चिंतवन मुझे अपने गुणों की प्रतीति कराता रहे । दौलतराम कहते हैं कि यह ही उनकी विनती है ,अरज है , उसे स्वीकार कीजिए ।