ज्ञानी ऐसे होली मचाई ॥टेक॥राग कियो विपरीत विपन-घर, कुमति कुसौति भगाई ।धर दिगम्बर कीन्ह सुसंवर, निज-पर-भेद लखाई ।घात विषयन की बचाई ॥ज्ञानी ऐसे होली मचाई ॥१॥कुमति सखा भज ध्यान भेद सज, तन में तान उड़ाई ।कुम्भक ताल मृदंग सो पूरक, रेचक बीन बजाई ।लगन अनुभव सों लगाई ॥ज्ञानी ऐसे होली मचाई ॥२॥कर्म बलीता रूप नाम अरि, वेद सुइन्द्रि गनाई ।दे तप-अग्नि भस्म करि तिनको, धूलि-अघाति उड़ाई ।करी शिवतिय सों मिलाई ॥ज्ञानी ऐसे होली मचाई ॥३॥ज्ञान को फाग भागवश आवे, लाख करो चतुराई ।सो गुरु दीनदयाल कृपा करि, 'दौलत' तोहि बताई ।नहीं चित से विसराई ॥ज्ञानी ऐसे होली मचाई ॥४॥
अर्थ : अहो, ज्ञानी जीव ऐसी होली खेलते हैं ।
वे राग का त्याग करके वन में निवास करते हैं, कुबुद्धिरूपी बुरी सौतन को भगा देते हैं, दिगम्वर मुद्रा धारण करके कर्मो का भली प्रकार संवर करते हैं, स्व और पर का भेदविज्ञान करते है तथा अपने आपको विषयों के प्रहारों से बचाते हैं।
वे अज्ञानरूपी मित्र को भगाते हैं, ध्यान के उत्तम भेदों को धारण करते हैं, अपने अन्तरंग को पूरी तरह उत्साह से भरते हैं, कुम्भकरूपी ताल, पूरकरूपी मृदंग एवं रेचकरूपी वीणा बजाते हैं और एक आत्मानुभव की ही लगन लगाये रहते हैं।
वे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-इन घाति कर्मो के ईंधन को तपरूपी अग्नि देकर भस्म कर देते हैं और फिर अधाति कर्मो को भी धूल के समान उडाकर मुक्तिरूपी स्त्री से मिलते हैं।
कविवर दौलतराम कहते हैं कि अहो, कोई कितना ही प्रयत्न कर ले, पर ऐसी ज्ञान की होली तो बड़े भाग्य से ही किसी के जीवन में आती है। यह तो, अब दयालु गुरु ने बड़ी कृपा करके मुझे ऐसी होली से परिचित करा दिया है, अतः अब मैं इसे कभी नहीं भूलूँगा।