ज्ञानी जीवनि के भय होय न या परकार ॥टेक॥ इहभव परभव अन्य न मेरो, ज्ञानलोक मम सार ।मै वेदक इक ज्ञानभाव को, नहिं पर वेदनहार ॥ज्ञानी जीवनि के भय होय न या परकार ॥१॥निज सुभाव को नाश न तातैं, चहिये नहि रखवार ।परमगुप्त निजरूप सहज ही, पर का तहँ न संचार ॥ज्ञानी जीवनि के भय होय न या परकार ॥२॥चित स्वभाव निज प्रान तास को, कोई नहीं हरतार ।मैं चितपिंड अखंड न तातै, अकस्मात भयभार ॥ज्ञानी जीवनि के भय होय न या परकार ॥३॥होय निःशंक स्वरूप अनुभव, जिनके यह निरधार ।मै सो मै, पर सो मैं नाही, 'भागचन्द' भ्रम डार ॥ज्ञानी जीवनि के भय होय न या परकार ॥४॥