ऐसे विमल भाव जब पावै
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ऐसे विमल भाव जब पावै, हमरो नरभव सुफल कहावै ॥टेक॥
दरशबोधमय निज आतम लखि, पर-द्रव्यनि को नहिं अपनावै ।
मोह-राग-रुष अहित जान तजि, झटित दूर तिनको छिटकावै ॥१॥
कर्म शुभाशुभ बंध-उदय मे, हर्ष-विषाद चित्त नहिं ल्यावै ।
निज-हित-हेत विराग-ज्ञान लखि, तिनसौं अधिक प्रीति उपजावै ॥२॥
विषयचाह तजि आत्मवीर्य सजि, दुःखदायक विधिबन्ध खिरावै ।
'भागचन्द' शिवसुख सब सुखमय, आकलता बिन लखि चित चावै ॥३॥