करो रे भाई तत्त्वारथ श्रद्धान ॥टेक॥नरभव सुकुल सुक्षेत्र पायके, करो रे भाई तत्त्वारथ श्रद्धान ॥देखन जाननहार आप लखि, देहादिक पर मान ॥करो रे भाई तत्त्वारथ श्रद्धान ॥१॥मोह राग रुष अहित जान तजि, बंधहु विधि दुःखदानकरो रे भाई तत्त्वारथ श्रद्धान ॥२॥निज स्वरूप में मगन होयकर, लगन विषय दो भान ॥करो रे भाई तत्त्वारथ श्रद्धान ॥३॥'भागचन्द' साधक है साधो, साध्य स्वपद अमलान ॥करो रे भाई तत्त्वारथ श्रद्धान ॥४॥
अर्थ : हे भाई! तुमने दुर्लभ मनुष्य भव, उत्तम कुल और उत्तम क्षेत्र को प्राप्त किया है इसलिये आत्महित करने में प्रयोजनभूत जीवादि सात तत्त्वों के सम्यक् अर्थ को पहचानो और उसकी ही श्रद्धा करो।
हे भाई ! स्वयं को जानने-देखने वाला अर्थात् ज्ञाता द्रष्टा अनुभव करो और शरीर आदि को पर-द्रव्य मानो तथा मोह-राग-द्वेष आदि आश्रव परिणामों को अहितकारी जानकर इनका त्याग करो, क्योंकि ये कर्म बंध के कारण होने से बहुत दुःख प्रदान करने वाले हैं।
हे जीव! अपने आत्म स्वरूप में लीन होकर विषयों की रुचि का त्याग करो । भागचन्द कवि कहते हैं कि - वास्तविक साधक अर्थात् साधु वही है जो अपने निर्मल निज आत्मा को ही साधता है अतः है जीव! सर्व दुःखों से मुक्ति के लिये तत्त्वों का यर्थात् श्रद्धान-ज्ञान करो।