धनि ते प्रानि, जिनके तत्त्वारथ श्रद्धान ॥टेक॥रहित सप्त भय तत्त्वारथ में, चित्त न संशय आन ।कर्म कर्मफल की नहिं इच्छा, पर में धरत न ग्लानि ॥धनि ते प्रानि, जिनके तत्त्वारथ श्रद्धान ॥१॥सकल भाव में मूढ़दृष्टि तजि, करत साम्यरस पान ।आतम धर्म बढ़ावैं वा, परदोष न उचरैं वान ॥धनि ते प्रानि, जिनके तत्त्वारथ श्रद्धान ॥२॥निज स्वभाव वा, जैनधर्म में, निज पर थिरता दान ।रत्नत्रय महिमा प्रगटावैं, प्रीति स्वरूप महान ॥धनि ते प्रानि, जिनके तत्त्वारथ श्रद्धान ॥३॥ये वसु अंग सहित निर्मल यह, समकित निज गुन जान ।'भागचन्द' शिवमहल चढ़न को, अचल प्रथम सोपान ॥धनि ते प्रानि, जिनके तत्त्वारथ श्रद्धान ॥४॥