जे सहज होरी के खिलारी, तिन जीवन की बलिहारी ॥टेक॥शांतभाव कुंकुम रस चन्दन, भर समता पिचकारी ।उड़त गुलाल निर्जरा संवर, अंबर पहरैं भारी ॥१॥सम्यकदर्शनादि सँग लेकै, परम सखा सुखकारी ।भींज रहे निज ध्यान रंगमें, सुमति सखी प्रियनारी ॥२॥कर स्नान ज्ञान जलमें पुनि, विमल भये शिवचारी ।'भागचन्द' तिन प्रति नित वंदन, भावसमेत हमारी ॥३॥
अर्थ : जो सहज स्वभाव की होली को खेलते हैं, उन जीवों को मैं प्रणाम करता हूँ।
वे जीव शांत भाव रूपी कुंकुम-चन्दन का रस समता रूपी पिचकारी में भरते हैं और ज्ञान-वस्त्र पहनकर संवर-निर्जरा की गुलाल उड़ाते हैं।
उनके साथ सम्यग्दर्शनादि सुखदायक सखा होते हैं और अपनी प्रिय सखी सुमति के साथ आत्मध्यान रूपी रंग में भीग जाते हैं।
जो जीव ज्ञानजल में स्नान करके मोक्षमार्गी अत्यन्त निर्मल हो गये हैं, कविवर भागचन्द कहते हैं कि मैं उन जीवों को भावसहित नित्य वन्दन करता हूँ।