ऋषभदेव जनम्यौ धन घरी ।इन्द्र नचें गंधर्व बजावैं, किन्नर बहु रस भरी ॥टेक॥पट आभूषन पुहुपमालसों, सहसबाहु सुरतरु ह्वै हरी ।दश अवतार स्वांग विधि पूरन, नाच्यो शक्र भगति उर धरी ॥ऋषभदेव जनम्यौ धन घरी ॥1॥हाथ हजार सबनिपै अपछर, उछरत नभमैं चहुँदिशि फरी ।करी करन अपछरी उछारत, ते सब नटैं गगन में खरी ॥ऋषभदेव जनम्यौ धन घरी ॥२॥प्रगट गुपत भूपर अंबरमें, नाचैं सबै अमर अमरी ।'द्यानत' घर चैत्यालय कीनौं, नाभिरायजी हो लहरी ॥ऋषभदेव जनम्यौ धन घरी ॥3॥
अर्थ : यह बड़ी, वह समय धन्य है, जब भगवान श्री ऋषभदेव का जन्म हुआ। इन्द्र ने नृत्य किया, गंधर्वों ने बाजे बजाए, किन्नरों ने संवेद रस से पूरित भाँतिभाँति की राग-रागिनियों से सारे वातावरण को रसमय कर दिया, सरस कर दिया।
वस्त्र-आभूषण (गहने), पुष्पों की माला लेकर कल्पवृक्ष की भांति सहस्रबाहु रूप धारणकर इन्द्र ने दशों दिशाओं में विक्रिया करते हुए भक्तिपूर्वक नृत्य किया।
इन्द्र ने विक्रिया से हजार हाथ बनाये, उन हजारों हाथों पर अप्सराओं ने नृत्य किया। स्वयं इन्द्र ने उछल-उछल कर सभी दिशाओं में नृत्य किया। अप्सराओं ने आकाश में अनेक प्रकार नृत्य किया।
इन्द्र ने अनेक प्रकार की नट क्रियाएँ की कभी अन्तान हुए, कभी पृथ्वी पर दीखे तो कभी आकाश में प्रगट हुए। इस प्रकार सभी देवी देवताओं ने भक्ति से नृत्य किया। द्यानतराय कहते हैं कि नाभिराय का घर उस प्रसन्नता की लहर में मानों एक चैत्यालय (मन्दिर) ही हो गया।