आरति कीजै श्रीमुनिराज की, अधमउधारन आतमकाज की ॥टेक॥जा लक्ष्मी के सब अभिलाखी, सो साधन करदम वत नाखी ॥१॥सब जग जीत लियो जिन नारी, सो साधन नागनिवत छारी ॥२॥विषयन सब जगजिय वश कीने, ते साधन विषवत तज दीने ॥३॥भुवि को राज चहत सब प्रानी, जीरन तृणवत त्यागत ध्यानी ॥४॥शत्रु मित्र दुखसुख सम मानै, लाभ अलाभ बराबर जानै ॥५॥छहोंकाय पीहरव्रत धारें, सबको आप समान निहारें ॥६॥इह आरती पढ़ै जो गावै, 'द्यानत' सुरगमुकति सुख पावै ॥७॥
अर्थ : दिगम्बर मुनिराज की आरती की जाती है । उन मुनिराज की जो आत्मकल्याण की प्रक्रिया में रत हैं लगे हुए हैं और धर्म से विरत लोगों का उद्धार करनेवालों जिस भौतिक धन-सम्पदा को सब चाहते हैं उस सम्पदा को, भौतिक साधनों को हे मुनिराज आपने कीचड़वत् कीचड़ के समान तुच्छ समझकर त्याग दिया है। मुनिराज की आरती की जाती है।
जिस काम-वासना की भावना ने सारे जगत् को वश में किया हुआ है उस कामवासना की भावना को हे मुनिराज आपने नागिन के समान ( जैसे नागिन को छोड़ देते हैं ) छोड़ दिया है । दूर कर दिया है । मुनिराज की आरती की जाती है ।
जिन विषय-भोगों ने सारे जग को वश में किया हुआ है उन सारे इन्द्रिय विषय-भोगों को हे मुनिराज! आपने विष के समान जानकर तज दिया है। उन मुनिराज की आरती की जाती है।
जगत के सब प्राणी राजा बनाना चाहते हैं परन्तु हे मुनिराज ! आपने उसे (राज-काज को) तृणवत् (तिनके के समान) तुच्छ समझकर त्याग दिया है। मुनिराज की आरती की जाती है।
आप सुख और दु:ख को, मित्र और शत्रु को समान समझते हैं, लाभ और अलाभ (हानि) को एक-सा मानते हैं। मुनिराज को आरती की जाती है।
हे मुनिराज ! आपने छहों काय के जीवों की पीड़ा को दूर करने का व्रत लिया है और आप छोटे-बड़े सभी जीवों को अपने समान ही जीव समझते हैं अर्थात् सबके प्रति करुणा और साम्यभाव रखते हैं, मुनिराज की आरती की जाती है।
द्यानतरायजी कहते हैं इस आरती को जो भी पढ़ता है, गाता है, समझता है और मन में जीवन में धारण करता है वह स्वर्ग और मोक्ष के सुख को पाता है।