जानत क्यों नहिं रे, हे नर आतमज्ञानीरागद्वेष पुद्गल की संगति, निहचै शुद्धनिशानी ॥टेक॥जाय नरक पशु नर सुर गतिमें, ये परजाय विरानी ।सिद्ध-स्वरूप सदा अविनाशी, जानत विरला प्रानी ॥१॥कियो न काहू हरै न कोई, गुरु सिख कौन कहानी ।जनम-मरन-मल-रहित अमल है, कीच बिना ज्यों पानी ॥२॥सार पदारथ है तिहुँ जगमें, नहिं क्रोधी नहिं मानी ।'द्यानत' सो घटमाहिं विराजै, लख हूजै शिवथानी ॥३॥
अर्थ : हे ज्ञानी-आत्मा, हे नर! तू यह क्यों नहीं जानता है कि राग-द्वेष दोनों ही पुद्गल-जनित हैं । इन दोनों से पुदगल का बोध होता है। तु चैतन्य है और निश्चय से, राग-द्वेष से रहित है, भिन्न है, शुद्धरूप में आत्मस्वरूप है ।
तू नरक, पशु, मनुष्य और देवगति में भ्रमण करता है, परन्तु ये पर्यायें तेरी नहीं हैं, ये तो पुद्गल की हैं । तू सिद्ध-स्वरूपी है, अविनाशी है । यह तथ्य कोई एक बिरला ही जानता है ।
द्रव्यदृष्टि से कोई किसी का कुछ नहीं कर सकता । कोई किसी पर-वस्तु को ग्रहण नहीं कर सकता । ये गुरु हैं, ज्ञानी हैं; और ये शिष्य हैं, इसने इसको ज्ञान दिया ऐसा कहने का क्या महत्व है ? जैसे कीचड़हित जल निर्मल है, वैसे ही सब उपाधि से मुक्त, जन्म-मरण से रहित यह आत्मा सर्व मल-रहित है, शुद्ध है ।
वह सर्वमलरहित आत्मा ही, क्रोध और मानरहित आत्मा ही तीन लोक में सारवान है, क्रोध और मान सारवान नहीं है । ऐसा क्रोध व मान से रहित निर्मल आत्मा जो अपने अन्तर में आसीन है, व्याप्त है उसी का ध्यान व चिन्तन कर जिससे शिव अर्थात् शान्ति का स्थान मोक्ष प्राप्त हो ।