भाई! ज्ञान बिना दुख पाया रे ॥टेक॥भव दश आठ उस्वास स्वास में, साधारन लपटाया रे ॥काल अनन्त यहां तोहि बीते, जब भई मंद कषाया रे ।तब तू तिस निगोद सिंधूतैं, थावर होय निसारा रे ॥भाई! ज्ञान बिना दुख पाया रे ॥१॥क्रम क्रम निकस भयो विकलत्रय, सो दुख जात न गाया रे ।भूख प्यास परवश सहि पशुगति, वार अनेक विकाया रे ॥भाई! ज्ञान बिना दुख पाया रे ॥२॥नरकमाहिं छेदन भेदन बहु, पुतरी अगन जलाया रे ।सीत तपत दुरगंध रोग दुख. जानैं श्रीजिनराया रे ॥भाई! ज्ञान बिना दुख पाया रे ॥३॥भ्रमत भ्रमत संसार महावन, कबहूँ देव कहाया रे ।लखि परविभौ सह्यौ दुख भारी, मरन समय बिललाया रे ॥भाई! ज्ञान बिना दुख पाया रे ॥४॥पाप नरक पशु पुन्य सुरग वसि, काल अनन्त गमाया रे ।पाप पुन्य जब भये बराबर, तब कहुँ नरभव पाया रे ॥भाई! ज्ञान बिना दुख पाया रे ॥५॥नीच भयो फिर गरभ खयो फिर, जनमत काल सताया रे ।तरुणपनै तू धरम न चेते, तन-धन-सुत लौ लाया रे ॥भाई! ज्ञान बिना दुख पाया रे ॥६॥दरबलिंग धरि धरि बहु मरि तू, फिरि फिरि जग भमि आया रे ।'धानत' सरधाजुत गहि मुनिव्रत, अमर होय तजि काया रे ॥भाई! ज्ञान बिना दुख पाया रे ॥७॥
अर्थ : अरे भाई ! ज्ञान के बिना इस जीव ने बहुत दुःख पाए हैं । निगोदकाय में एक श्वास में अठारह बार जन्म-मरण तक इसने किया है ।
इसप्रकार निगोद में अनन्तकाल बीत जाने पर जब कषायों में मंदता आई तब जीव निगोदकाय के समुद्र से बाहर होकर निकलकर स्थावर पर्याय में उत्पन्न हुआ ।
फिर क्रम से वहाँ से निकल कर दो, तीन, चार इन्द्रिय अर्थात् विकलेन्द्रिय हुआ और बहुत दुःख पाए, वे दुःख बताये नहीं जा सकते । कभी भूख व प्यास के दुःखोंवाली पराधीन और पीड़ित पशुगति पाई जिसमें अनेक बार बेचा गया ।
नरक में छेदन-भेदन के बहुत दु:ख भुगते । आँखों की कोमल पुतलियाँ अग्नि से जलाई गईं । शीत व ताप, दुर्गध, रोग आदि के दुःख भोगे, जिसे सर्वज्ञदेव श्री जिनवर ही जानते हैं ।
इस संसाररूपी वन में भ्रमण करते-करते कभी देवगति पाई और देव कहलाया । वहाँ भी दूसरों के वैभव को देख-देखकर ईर्ष्यावश दु:खी होता रहा और मृत्यु का समय निकट आने पर दु:खी हुआ ।
इस प्रकार पाप के कारण नरक गति व तिर्यंच गति में तथा पुण्य के कारण देव बनकर अनन्तकाल बिता दिया । जब पाप और पुण्य बराबर हुए तब कहीं मनुष्य देह पाई ।
उसमें भी कभी नीच प्रवृत्तिवाला हुआ, कभी गर्भपात आदि द्वारा अल्प आयुवाला हुआ, कभी जन्म होते ही सताया गया । जवानी में धर्म के प्रति रुचि नहीं हुई, उस समय तन, धन, पुत्र आदि में रमकर सुख मानने लगा ।
हे भाई! द्रवलिंग धारण करके बहुत बार मरा और सारा जगत घूम चुका, भ्रमण कर चुका । द्यानतराय कहते हैं कि तू श्रद्धासहित मुनिव्रत ग्रहणकर, उसका पालन कर जिससे देह से छूटकर तू अमर हो जाए, जन्म-मरण से छुटकारा पा जाए ।