महावीर महावीर जीवाजीव छीर-नीर,पाप ताप-नीर-तीर धरम की धर है ।आस्रव स्रवत नाँहि बँधत न बन्ध माँहि,निज्र्जरा निर्जरत संवर के घर है ॥तेरमो है गुनथान सोहत सुकल ध्यान,प्रगटो अनन्त ज्ञान मुकत के वर है ।सूरज तपत करै जड़ता कूँ चन्द धरै,'द्यानत' भजो जिनेश कोऊ दोष न रहै॥
अर्थ : भगवान महावीर ने जीव और अजीव का भेद दूध और पानी के समान अलग-अलग करके बता दिया है। उनका नाम संसार के पाप एवं ताप रूपी सरिता से पार होने के लिये नाव के समान है तथा धर्म की धरा है— आधार है। जीव और अजीव का भेदविज्ञान होने के पश्चात कर्मों का आस्रव और बन्ध नहीं होता। जो कर्म सत्ता में हैं उनकी भी निर्जरा हो जाती है। नवीन कर्मों का संवर (निरोध) हो जाता है। ऐसे भेदविज्ञानी मुनि ही क्षपक श्रेणी में आरोहण करके केवलज्ञान प्राप्त करते हैं और संसार से पार होकर मुक्ति प्राप्त करते हैं। कविवर द्यानतराय कहते हैं कि सूर्य में तो ताप है और चन्द्रमा में जड़ता है, परन्तु भगवान महावीर का भजन करने से मनुष्य सभी दोषों से मुक्त हो जाता है।