हमारो कारज कैसें होयकारण पंच मुकति मारग के, जिनमें के हैं दोय ॥टेक॥हीन संहनन लघु आयूषा, अल्प मनीषा जोय ।कच्चे भाव न सच्चे साथी, सब जग देख्यो टोय ॥१॥इन्द्री पंच सुविषयनि दौरैं, मानैं कह्या न कोय ।साधारन चिरकाल वस्यो मैं, धरम बिना फिर सोय ॥२॥चिन्ता बड़ी न कछु बनि आवै, अब सब चिन्ता खोय ।'द्यानत' एक शुद्ध निजपद लखि, आपमें आप समोय ॥३॥
अर्थ : हे प्रभु! हमारा कार्य कैसे सिद्ध हो? कैसे सम्पन्न हो? मुक्तिमार्ग के कारण पंच परमेष्ठी हैं, जिनमें से कार्यरूप तो केवल अरहंत और सिद्ध, ये दो ही हैं।
हमारा संहनन (शक्ति) हीन अर्थात् कमजोर है। आयु भी थोड़ी है, तथा बुद्धि भी थोड़ी ही है। इस प्रकार के कच्चे (बिना पके) भाव हमारे सच्चे साथी नहीं हो सकते। यह भाव-जगत में हमने देख लिया है।
हमारी पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों की ओर दौड़ रही हैं। वे किसी का कहना सुनती ही नहीं हैं अर्थात् मन इन्द्रिय-विषयों में ही लुब्ध रहता है, उनमें ही राचता है, मुग्ध होता है। बहुत काल तक मैं साधारण वनस्पति रूप में एकेन्द्रिय बनकर निगोद राशि में भटकता रहा, जहाँ धर्म की प्रतीति ही नहीं ।
हाँ, यह चिन्ता तो बहुत है पर इसका निराकरण कैसे हो - यह दिखाई नहीं देता। धानतराय कहते हैं कि अब चिन्ता को छोड़कर अपने आप में अपने आप को ही देखो और उसी में स्वयं लीन हो जावो।