हो भैया मोरे! कहु कैसे सुख होय ॥टेक॥लीन कषाय अधीन विषय के, धरम करै नहिं कोय ॥पाप उदय लखि रोवत भोंदू!, पाप तजै नहिं सोय ।स्वान-वान ज्यों पाइन सूंघै, सिंह हनै रिपु जोय ॥हो भैया मोरे! कहु कैसे सुख होय ॥१॥धरम करत सुख दुख अघसेती, जानत हैं सब लोय ।कर दीपक लै कूप परत है, दुख पैहै भव दोय ॥हो भैया मोरे! कहु कैसे सुख होय ॥२॥कुगुरु कुदेव कुधर्म भुलायो, देव धरम गुरु खोय ।उलट चाल तजि अब सुलटै जो, 'द्यानत' तिरै जग-तोय ॥हो भैया मोरे! कहु कैसे सुख होय ॥३॥
अर्थ : ओ मेरे भाई ? बता, सुख किस प्रकार हो ! कषायों से ग्रस्त व इन्द्रिय-विषयों में आसक्त जीव कोई धर्म-साधन नहीं करता तब उसे सुख किस प्रकार हो सकता है?
अरे भोंदू (नासमझ) ! जब पापोदय होता है, तब तू रोता है, परन्तु पाप को छोड़ता नहीं है । तेरी आदत तो उस कुत्ते की भाँति हैं जो पहले शत्रु के पाँव को सूंघता रहता है, जबकि सिंह की आदत तो शत्रु को देखते ही उसे नष्ट करने की होती है।
धर्म-साधन से सुख होते हैं और पाप से दुःख होता है, यह सब लोग जानते हैं । अरे हाथ में दीपक लेकर भी यदि कोई कुएं में गिरे तो वह इस भव व परभव दोनों में दुःख का भागी होता है ।
सच्चे देव, शास्त्र व गुरु का साथ छोड़कर कुगुरु, कुदेव, कुधर्म में तू अपने आपको भुला रहा है । द्यानतराय कहते हैं कि इस उल्टी चाल को छोड़कर अब यदि तू सीधी चाल चले, सम्यक् राह पर चले तो तू इस जग से पार हो सकेगा, तिर जावेगा ।