अहो भवि प्रानी चेतिये हो, छिन छिन छीजत आव ॥घड़ी घड़ी घड़ियाल रटत है, कर निज हित अब दाव ॥टेक॥जो छिन विषय भोगमें खोवत, सो छिन भजि जिन नाम ।वातैं नरकादिक दुख पैहै, यातैं सुख अभिराम ॥अहो...१॥विषय भुजंगम के डसे हो, रुले बहुत संसार ।जिन्हैं विषय व्यापै नहीं हो, तिनको जीवन सार ॥अहो...२॥चार गतिनिमें दुर्लभ नर भव, नर बिन मुकति न होय ।सो तैं पायो भाग उदय हों, विषयनि-सँग मति खोय ॥अहो...३॥तन धन लाज कुटुँब के कारन, मूढ़ करत है पाप ।इन ठगियों से ठगायकै हो, पावै बहु दुख आप ॥अहो...४॥जिनको तू अपने कहै हो, सो तो तेरे नाहिं ।कै तो तू इनकौं तजै हो, कै ये तुझे तज जाहिं ॥अहो...५॥पलक एक की सुध नहीं हो, सिरपर गाजै काल ।तू निचिन्त क्यों बावरे हो, छांडि दे सब भ्रमजाल ॥अहो...६॥भजि भगवन्त महन्त को हो, जीवन-प्राणअधार ।जो सुख चाहै आपको हो, `द्यानत' कहै पुकार ॥अहो...७॥
अर्थ : हे भव्य प्राणी! तू अब चेत, जाग जा! एक-एक क्षण करके तेरी आयु बीती जा रही है और यह घड़ी हर क्षण टिक-टिक आवाज कर कह रही है कि अभी भी अवसर है अपने हित का कोई कार्य कर लो।
हे जीव! जो क्षण तू विषय-भोगों में खो रहा है उस क्षण को तू श्री जिनेन्द्र भगवान के नाम को भजने में लगा क्योंकि विषय-भोगों से तो नरकादिक दुःख मिलते हैं और जिन नाम के सुमिरन से आत्मिक सुख की प्राप्ति होती है।
विषय-भोगरूपी सर्प के डसने पर बहुत काल तक संसार में भटकना पड़ता है, अत: जिनके जीवन में विषय भोग नहीं है वास्तव में उनका जीवन ही सार स्वरूप है, प्रयोजनवान है।
चारों गतियों में अत्यंत दुर्लभता से यह मनुष्य पर्याय प्राप्त होती है और इसके बिना मुक्ति की प्राप्ति संभव नहीं है। ऐसा मनुष्य जन्म तुमने पुण्य उदय से प्राप्त कर लिया है अत: अब विषय भोगों में लगाकर इसे बरबाद मत करो।
अज्ञानी मनुष्य इस देह, धन, इज्जत और कुटुम्ब के कारण पाप कार्य करता है और इन ठगों से ठगा जाकर वह स्वयं बहुत दुःख पाता है।
जिनको तू अपना कहता है, वे तो तेरे हैं नहीं क्योंकि आयु समाप्ति पर या तो तू उनको छोड़ देगा अन्यथा ये तुझको छोड़कर चले जायेंगे।
हे जीव! काल सदा सिर पर मंडरा रहा है और एक पल का भी विश्वास नहीं है, ऐसे समय में भी मूर्ख तू निश्चिन्त क्यों हो गया है? यह सब भ्रमजाल है इसको छोड़ दे।
द्यानतरायजी पुकार कर कहते हैं कि जो तू अपना सुख चाहता है तो जिनेन्द्र भगवान का भजन कर, यह ही वास्तव में तेरे जीवन का आधार है।