आतम जानो रे भाई !जैसी उज्जल आरसी रे, तैसी आतम जोत ।काया-करमनसों जुदी रे, सबको करै उदोत ॥१॥शयन दशा जागृत दशा रे, दोनों विकलपरूप ।निरविकलप शुद्धातमा रे, चिदानंद चिद्रूप ॥२॥तन वचसेती भिन्न कर रे, मनसों निज लौं लाय ।आप आप जब अनुभवै रे, तहाँ न मन वच काय ॥३॥छहौं दरब नव तत्त्वतैं रे, न्यारो आतमराम ।'द्यानत' जे अनुभव करैं रे, ते पावैं शिवधाम ॥४॥
अर्थ : हे भाई! अपनी आत्मा को जानो।
जैसे दर्पण उज्ज्वल, स्वच्छ व स्पष्ट होता है वैसे ही उज्ज्वल, स्वच्छ व स्पष्ट आत्मा होती है । जैसे स्वच्छ दर्पण स्पष्ट व उज्ज्वल छवि प्रकाशित करता है वैसे ही शरीर और कर्मों से भिन्ना ज्योतिरूप यह आत्मा सबको प्रकाशित करनेवाली है।
निद्रित (सुप्त) होना व जागृत होना दोनों ही विकल्प हैं । इन दोनों ही अवस्थाओं से परे हैं अपना यह शुद्ध आत्मा का स्वरूप, स्थिर व अचंचल, शान्त व निर्मल है।
देह और वचन से भिन्न करके अपने मन से इसमें लौ लगाओ, रुचि जगाओ। जब तुम्हारे अनुभव में इसके अस्तित्व का भान हो, तो वहाँ मन, वचन और काय तीनों का अभाव हो जायेगा।
यह आत्मा द्रव्य छहों द्रव्य, सात तत्त्व व नोकर्म से सर्वथा भिन्न है । द्यानतराय कहते हैं कि जो इसका अनुभव करता है वह ही मोक्ष को पाता है ।