करौं आरती वर्द्धमानकी, पावापुर निरवान थान की ॥टेक॥राग-बिना सब जग जन तारे, द्वेष बिना सब करम विदारे ॥१॥शील-धुरंधर शिव-तियभोगी, मनवचकायन कहिये योगी ॥२॥रतनत्रय निधि परिगह-हारी, ज्ञानसुधा भोजनव्रतधारी ॥३॥लोक अलोक व्यापै निजमांहीं, सुखमय इंद्रिय सुखदुख नाहीं ॥४॥पंचकल्याणकपूज्य विरागी, विमल दिगंबर अबंर त्यागी ॥५॥गुनमनि-भूषन भूषित स्वामी, जगतउदास जगंतरस्वामी ॥६॥कहै कहां लौँ तुम सब जानौ, 'द्यानत' की अभिलाष प्रमानौं ॥७॥
अर्थ : मैं भगवान वर्द्धमान को / तीर्थकर महावीर की आरती करता हूँ जिनका निर्वाणस्थान पावापुर है। मैं उन भगवान वर्द्धमान की आरती करता हूँ जिन्होंने रागरहित / राग-शून्य होकर मैत्री भावना और करुणा से जगत के प्राणियों को संसार से भव-भ्रमण से छूटने का उपाय बताया जिन्होंने द्वेषरहित होकर सब कर्मों का नाश किया। मैं उन भगवान वर्द्धमान की आरती करता हूँ जिन्होंने ब्रह्मचर्या में रत होकर शील का दृढ़ता से पालन किया, जिन्होंने मन-वचन और काय की एकाग्रता कर योग धारण किया, गुप्ति का पालन किया और मोक्षरूपी लक्ष्मी का वरण किया। जिन्होंने सब परिग्रह को छोड़कर रत्नत्रय निधि (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित) को धारण किया, जिन्होंने ज्ञानरूपी अमृत का भोजन किया अर्थात् सर्वोच्च ज्ञान प्राप्त किया। जिन्होंने सर्वज्ञ होकर लोक और अलोक को अपने में ही दर्पणवत् धारण किया है। जिन्होंने इन्द्रिय-विषयों के सुख-दुःखों को छोड़कर अनन्त सुख को धारण किया है। उनकी गर्भ-जन्म तप ज्ञान और मोक्ष - ये पाँचों घटनाएँ स्थितियाँ जगत के प्राणियों का कल्याण करनेवाली हैं, इसलिए पूज्य हैं / वे विरागी हैं, रागद्वेषरहित हैं। उन्होंने सब वस्त्र, वैभव आदि सब परिग्रह छोड़कर दिशाएँ ही जिनका वस्त्र है ऐसा नग्न-दिगम्बर वेश धारण किया। वे सब गुणोंरूपी मणियों और आभूषणों से भूषित हैं । वे समस्त जगत से उदासीन हैं किन्तु अपने अभ्यन्तर जगत के अपनी आत्मा के स्वामी हैं। हे वर्द्धमान भगवान ! हम कहाँ तक कहें ! आप तो सर्वज्ञ हैं, सब-कुछ जानते हैं । भक्त द्यानतराय कह रहे हैं कि हमारी भी आपके समान हो जाने की भावना है, अभिलाषा है ।