कहत सुगुरु करि सुहित भविकजन ! ॥टेक॥
पुद्गल अधरम धरम गगन जम,
सब जड़ मम नहिं यह सुमरहु मन ॥
नर पशु नरक अमर पर पद लखि,
दरब करम तन करम पृथक भन ।
तुम पद अमल अचल विकलप बिन,
अजर अमर शिव अभय अखय गन ॥१॥
त्रिभुवनपतिपद तुम पटतर नहीं,
तुम पद अतुल न तुल रविशशिगन ।
वचन कहन मन गहन शकति नहिं,
सुरत गमन निज जिन गम परनन ॥२॥
इह विधि बँधत खुलत इह विधि जिय,
इन विकलपमहिं, शिवपद सधत न ।
निरविकलप अनुभव मन सिधि करि,
करम सघन वनदहन दहन-कन ॥३॥
अर्थ : सत्गुरु भव्यजनों के हित के लिए उपदेश देते हैं, संबोधित करते हैं कि ए मेरे मन ! पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये सब अजीव हैं, जड़ हैं ! ये मेरे नहीं है क्योंकि मेरा आत्मा जड़ नहीं है, चैतन्य है, ऐसा सदैव स्मरण रखो।
देव, नारकी, मनुष्य और तिर्यंच ये चारों गतियाँ 'पर' रूप हैं, द्रव्यकर्म व नोकर्म शरीर से भिन्न यह आत्मा निर्मल, अचल, अजर, अमर, निर्विकल्प, शिव, अभय, अक्षय आदि गुणों का समूह है। आपके समान तीन लोक का नाथ अन्य कोई नहीं है ।
आपके तेज की समता सूर्य और चन्द्रमा के समूह भी नहीं कर सकते। आपका ध्यान आते ही निज में निज की जो परिणति होती है, उसे वचन से कहने व मन से ग्रहण करने की सामर्थ्य व शक्ति नहीं है।
संसार में इस प्रकार कर्म बंध होते हैं और इस प्रकार निर्जरा होती है, इस प्रकार कर्म झड़ते हैं - इन विकल्पों के रहते मोक्षमार्ग की साधना नहीं होती। इसलिए निर्विकल्प होकर आत्मचिंतन करने पर ही कर्मरूपी सघन वन के कणकण को दहनकर नष्ट किया जा सकता है।