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श्री
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कहिवे को मन सूरमा
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राग : बिलावल, मुझको अपने गले लगा लो

कहिवे को मन सूरमा, करवे को काचा ।
विषय छुड़ावै औरपै, आपन अति माचा ॥टेक॥

मिश्री मिश्री के कहैं, मुंह होय न मीठा ।
नीम कहैं मुख कटु हुआ, कहुँ सुना न दीठा ॥
कहिवे को मन सूरमा, करवे को काचा ॥१॥

कहनेवाले बहुत हैं, करने को कोई।
कथनी लोक-रिझावनी, करनी हित होई ॥
कहिवे को मन सूरमा, करवे को काचा ॥२॥

कोड़ि जनम कथनी कथै, करनी बिनु दुखिया।
कथनी बिनु करनी कर, 'द्यानत' सो सुखिया ॥
कहिवे को मन सूरमा, करवे को काचा ॥३॥



अर्थ : अरे मन! तू कहने के लिए तो शूरवीर बनता है पर क्रिया करने के लिए अत्यन्त कमजोर है । अन्य लोगों को तो इन्द्रिय-विषय छोड़ने का उपदेश देता है, परन्तु तू स्वयं उनमें रच-पच रहा है, बहुत रत हो रहा है।

मिश्री-मिश्री कहनेभर से मुंह मीठा नहीं होता और न नीम-नीम कहने से मुँह कडुवा होता है। ऐसा होते हुए न कहीं सुना और न ही कहीं देखा।

कहनेवाले तो बहुत है, परन्तु करने के लिए कोई विरले ही होते हैं । कहना मात्र तो लोक को रिझाने के लिए होता है, जबकि हित तो उसके करने से होता है।

करोड़ों जन्म तक कहता तो रहा, पर किया कुछ नहीं, इसलिए दु:खी हुआ। धानतराय कहते हैं कि जो शक्ति मात्र कहने में अर्थात् बातें करने में व्यय की जाती है उस शक्ति को जो कोई क्रिया करने में व्यय करता है वह ही सुख पाता है ।
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