जानो धन्य सो धन्य सो धीर वीरा ।मदन सौ सुभट जिन, चटक दे पट कियो ॥धन्य सो धन्य सो धीर वीरा ॥टेक॥पांच-इन्द्रि-कटक झटक सब वश कर्यो ।पटक मन भूप कीनो अँजीरा ॥धन्य सो धन्य सो धीर वीरा ॥१॥आस रंचन नहीं पास कंचन नहीं ।आप सुख सुखी गुन गन गंभीरा ॥धन्य सो धन्य सो धीर वीरा ॥२॥कहत 'द्यानत' सही, तरन तारन वही ।सुमर लै संत भव उदधि तीरा ॥धन्य सो धन्य सो धीर वीरा ॥३॥
अर्थ : जिसने उस धन्य (वह जो अपना लक्ष्य पा चुका) को जाना वह ही धन्य है अर्थात् पुण्यशाली हुआ। वह ही धीर हैं, वह ही वीर है ।
जिसने कामदेव जैसे पराक्रमी को क्षणभर में चित्त कर दिया, धराशायी कर दिया अर्थात् कामनाओं को हरा दिया और उसका नाश कर दिया, वह ही धन्य है।
जिसने पाँचों इन्द्रियों की सेना को पलभर में, एक झटके में, त्वरित वश में कर लिया और मनरूपी राजा को जंजीरों से अर्थात् संयम से वश में कर लिया अर्थात् स्थिर व नियंत्रितकर वश में कर लिया, वह ही धन्य है ।
जिसके कोई आशा नहीं है, पास में धन नहीं है और फिर भी गंभीर होकर, सबसे सुखी हो रहा है।
द्यानतराय कहते हैं कि यह सही है कि ऐसा जो है वह स्वयं भी तिर जाता हैं और वह ही दूसरों को तिरानेवाला है। वह संत (साधु) ही इस भव-समुद्र के तीर पर लगानेवाला है। उसका ही स्मरण कर।