जिनवरमूरत तेरी, शोभा कहिय न जाय ॥टेक॥रोम रोम लखि हरष होत है, आनंद उर न समाय ।जिनवरमूरत तेरी, शोभा कहिय न जाय ॥1॥शांतरूप शिवराह बतावै, आसन ध्यान उपाय ।जिनवरमूरत तेरी, शोभा कहिय न जाय ॥२॥इंद फनिंद नरिंद विभौ सब, दीसत है दुखदाय ।जिनवरमूरत तेरी, शोभा कहिय न जाय ॥३॥'द्यानत' पूजै ध्यावै गावै, मन वच काय लगाय ।जिनवरमूरत तेरी, शोभा कहिय न जाय ॥४॥
अर्थ : हे जिनेन्द्र! आपके बिम्ब की, मूर्ति की शोभा वचनों द्वारा नहीं कही जा सकती, वह अवर्णनीय है।
आपकी प्रतिमा को देखकर मेरा रोम-रोम पुलकित हो जाता है। इतना आनन्द होता है कि मन में नहीं समाता ।
हृदय पात्र से आनन्द छलकने लगता है। आपका प्रशान्त रूप मोक्षमार्ग की बता रहा है और आपकी मुद्रा उसका उपाय बता रही है, और बता रही है कि ध्यान की मुद्रा यह ही है।
इन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र आदि सभी के वैभव दुःखकारी (दुःख देनेवाले हैं) यह स्पष्ट दिख रहा है ।
द्यानतराय कहते हैं कि मन, वचन और काय से एकाग्र होकर इनकी पूजा करो, ध्यान करो, गुणगान करो।