देखे सुखी सम्यकवान सुख दुख को दुखरूप विचारै, धारै अनुभवज्ञान ॥टेक॥नरक सात में के दुख भोगैं, इन्द्र लखें तिन-मान ।भीख मांग कै उदर भरें, न करें चक्री को ध्यान ॥देखे सुखी सम्यकवान ॥१॥तीर्थंकर पदकों नहिं चावै, जदपि उदय अप्रमान ।कुष्ट आदि बहु ब्याधि दहत न, चहत मकरध्वज थान ॥देखे सुखी सम्यकवान ॥२॥आधि व्याधि निरबाध अनाकुल, चेतनजोति पुमान ।'द्यानत' मगन सदा तिहिमाहीं, नाहीं खेद निदान ॥देखे सुखी सम्यकवान ॥३॥
अर्थ : इस संसार में सम्यक्त्वी पुरुष ही सुखी देखे जाते हैं जो सांसारिक सुख व दुःख दोनों को दुःख रूप ही समझते हैं, विचारते हैं जो मात्र अनुभवज्ञान को केवलज्ञान को धारण करते हैं।
जो सातवें नरक के दु:खों को भोगते समय दुःखी नहीं होते. इन्द्र के वैभव को तिनके के समान तुच्छ समझते हैं, भिक्षा माँगकर पेट भरना हो तब भी चक्रवर्ती के सुखों का ध्यान/वांछा नहीं करते अर्थात् दोनों स्थितियों को महत्त्व नहीं देते। सब स्थितियों में समानभाव/समताभाव रखते हैं, ऐसे सम्यक्त्वी पुरुष ही इस संसार में सुखी देखे जाते हैं।
जो तीर्थंकर पद की कामना नहीं करते, यद्यपि (अभी) कर्मों का उदय अप्रमाण/असीम है। न कुष्ट आदि व्याधियों की पीड़ा से अपने को दु:खी करते, न वे मकरध्वज (कामदेव) की जैसी सुन्दर की कामना करते। ऐसे सम्यक्त्वी पुरुष ही इस संसार में सुखी देखे जाते हैं।
आधि-व्याधि से परे, बाधारहित निराकुलता ही उस चैतन्य पुरुष की ज्योति है, तेज है, ऊर्जा है, बल है। द्यानतराय कहते हैं कि वह उसमें ही सदा मगन रहता है, उसे किसी प्रकार का कोई खेद नहीं और न किसी प्रकार की कोई कामना या निदान हो। ऐसा सम्यक्त्वी पुरुष ही इस संसार में सुखी देखा जाता है।