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श्री
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धनि ते साधु रहत वनमाहीं
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धनि ते साधु रहत वनमाहीं ।
शत्रु-मित्र सुख-दुःख सम जानैं, दिरसन देखत पाप पलाहीं ॥टेक॥

अट्ठाईस मूलगुण धारै, मन वच काय चपलता नाहीं ।
ग्रीषम शैल शिखा हिम तटिनी, पावस बरखा अधिक सहाहीं ॥
धनि ते साधु रहत वनमाहीं ॥१॥

क्रोध मान छल लोभ न जानैं, राग-दोष नाहीं उनपाहीं ।
अमल अखंडित चिद्गुण मंडित, ब्रह्मज्ञान में लीन रहाहीं ॥
धनि ते साधु रहत वनमाहीं ॥२॥

तेई साधु लहैं केवल पद, आठ काठ दह शिवपुरी जाहीं ।
'द्यानत' भवि तिनके गुण गावैं, पावैं शिवसुख दुःख नसाहीं ॥
धनि ते साधु रहत वनमाहीं ॥३॥



अर्थ : वे साधु धन्य है जो निर्जन-(एकान्त) वन में रहते हैं। उनके लिए शत्रुमित्र, सुख-दुख सब समान हैं । उनके (ऐसे गुरु के) दर्शन से पाप नष्ट हो जाते हैं, दूर हो जाते हैं ।

वे मुनि 28 मूल गुणों को धारण करते हैं, पालन करते हैं। उनके मन-वचन-काय की चंचलता नहीं होती। गर्मी की तपन में वे पहाड़ की चोटी पर, सर्दी में नदी के किनारे और वर्षाऋतु में वृक्ष तले तपस्या करते हैं और सब परिषह सहन करते हैं।

वे क्रोध, मान, छल (माया) और लोभ इन चार कषायों को छोड़ चुके हैं, इससे उनके राग और द्वेष नहीं होता। वे अपने निर्मल चैतन्य स्वरूप में, अखंड आत्मस्वरूप के ज्ञान में लीन रहते हैं, मगन रहते हैं।

वे ही साधु केवलज्ञान की स्थिति को प्राप्त करते हैं । आठ प्रकार के कर्मरूपी ईंधन को जलाकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं । द्यानतराय कहते हैं कि जो भव्यजन उनके गुणों का स्मरण करते हैं वे दु:खों का नाश करके मोक्ष-सुख की प्राप्ति करते हैं।
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