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श्री
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सँभाल जगजाल में काल दरहाल
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राग गौरी

रे भाई! सँभाल जगजाल में काल दरहाल रे ॥टेक॥

कोड़ जोधा को जीतै छिनमें, एकलो एक हि सूर ।
कोड़ सूर अस धूर कर डारै, जमकी भौंह करूर ॥
रे भाई! सँभाल जगजाल में काल दरहाल रे ॥१॥

लोहमें कोट सौ कोट बनाओ, सिंह रखो चहुंओर ।
इंद, फनिंद, नरिंद चौकि दैं, नहिं छोडै, मृतु जोर ॥
रे भाई! सँभाल जगजाल में काल दरहाल रे ॥२॥

शैल जलै जस आग वलै सो, क्यों छोडै तिन सोय ।
देव सबै इक काल भखै है, नरमें क्या बल होय ॥
रे भाई! सँभाल जगजाल में काल दरहाल रे ॥३॥

देहधारी भये भूपर जे जे, ते खाये सब मौत ।
'द्यानतराय' धर्म को धार चलो शिव, मौत को करके फौत ॥
रे भाई! सँभाल जगजाल में काल दरहाल रे ॥४॥



अर्थ : अरे भाई ! इस जगत के जाल में तू अपने को सँभाल । काल अर्थात् मृत्यु सदैव तेरे दरवाजे पर खड़ी है ।

कोई एक अकेला ही इतना वीर है कि करोड़ों योद्धाओं को जीत लेता है, करोड़ों को धूलि-मिट्टी कर देता है किन्तु उसको भी यम की क्रूर दृष्टि नष्ट कर देती है ।

लोहे के सौ-सौ परकोटे बनाओ और उनकी रक्षा के लिए चारों ओर रक्षक योद्धा रखो; चाहे इन्द्र हो, फणीन्द्र हो या नृप आदि चौकीदारी करें तो भी मृत्यु किसी को छोड़ती नहीं है । उस मृत्यु पर किसी का जोर नहीं चलता ।

जैसे अग्नि की पहाड़-सी ऊँची उठती भयानक लपटों में कुछ भी नहीं बचता उसी प्रकार यह काल सबको खा जाता है, लील जाता है उसके सामने इस मनुष्य में कितना-सा बल है ।

इस पृथ्वी पर जितने भी प्राणी हैं वे सब देह धारण किए हुए हैं, सदेह हैं, उन सभी को यह मौत खा जाती है । द्यानतराय कहते हैं कि तुम मोक्ष की प्राप्ति के लिए धर्म की राह पर चलो जिससे मृत्यु-श्रृंखला का अंत कर सको ।
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