सब जग को प्यारा, चेतनरूप निहारादरव भाव नो करम न मेरे, पुद्गल दरव पसारा ॥टेक॥चार कषाय चार गति संज्ञा, बंध चार परकारा ।पंच वरन रस पंच देह अरु, पंच भेद संसारा ॥१॥छहों दरब छह काल छहलेश्या, छहमत भेदतैं पारा ।परिग्रह मारगना गुन-थानक, जीवथानसों न्यारा ॥२॥दरसन ज्ञान चरन गुनमण्डित, ज्ञायक चिह्न हमारा ।सोहं सोहं और सु औरे, 'द्यानत' निहचै धारा ॥३॥
अर्थ : अपने चैतन्यरूप को निहारा, देखना ही सारे जगत को प्रिय है। द्रव्य कर्म व नो कर्म,ये मुझ चैतन्य के नहीं है। ये तो सब पुद्गल का ही विस्तार है, प्रसार है।
चार कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ); चार गति (देव, नारक, मनुष्य और तिर्यच); चार संज्ञा (आहार, भय, मैथुन और परिग्रह); चार प्रकार के बंध (प्राकृतिक, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग); पाँच वर्ण (हरा, नीला, काला, पीला और सफेद); पाँच रस (खट्टा, मीठा, चरपरा, करायला और कडुआ); पाँच देह (औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, कार्माण और तेजस) व पंच परावर्तन रूप स्थितियाँ (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव) संसार ही है।
यह चेतन द्रव्य अन्य पाँचों द्रव्यों (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल), छह काल (सुखमा-सुखमा, सुखमा, सुखमा-दुखमा, दुखमा-सुषमा, दुखमा, दुखमा-दुखमा), छह लेश्या और छह प्रकार के मतों से परे है तथा सब परिग्रहों, चौदह मार्गणा, चौदह गुणस्थान, चौदह जीवस्थान इन सबसे न्यारा है।
दर्शन, ज्ञान, चारित्र के गणों से भरा हआ, यह जानने वाला /ज्ञायक होना ही हमारा चिह्न है। सोऽहं, सोऽहं अर्थात् मैं वह (सिद्ध/शुद्धरूप) हूँ, इसी को ध्यावे व चिन्तन में लावे, यह ही निश्चय का मार्ग है, प्रवाह है।