प्रभुजी प्रभू सुपास! जगवासतें दास निकास ॥टेक॥इंदके स्वाम फनिंद के स्वाम, नरिंद के चन्द के स्वाम ।तुमको छांड़के, किसपै जावैं, कौनका ढूंढ़ें धाम ॥1॥भूप सोई दुःख दूर करै है, साह सोई दै दान ।वैद सोई सब रोग मिटावै, तुमी सबै गुनवान ॥2॥चोर अंजन से तार लिये हैं, जार कीचक से राव ।हम तो सेवक सेव करै हैं, नाम जपैं मन चाव ॥3॥तुम समान हुए न होंगे, देव त्रिलोक मँझार ।तुम दयाल देवों के देव हो, 'द्यानत' को सुखकार ॥4॥
अर्थ : हे भगवान सुपार्श्वनाथ! मुझ दास को इस जगत के निवास से बाहर निकालिए ।
आप इन्द्रों के स्वामी हैं। नागेन्द्र के स्वामी हैं। नरेशों के स्वामी हैं तथा अन्य सभी के स्वामी हैं। तब आपको छोड़कर अन्यत्र किसके पास जायें? अन्य कौनसी ठौर देखें / ढूँढ़ें?
राजा वही है जो प्रजा के दुख दूर करता है और श्रेष्ठि (सेठ) वही है जो दान दे। वैद्य वह ही उत्तम है जो सब रोग का निदान करे तथा उपचार करे। आपमें ये सब गुण विद्यमान हैं।
आपने अंजन से अधम चोर का भी उद्धार किया, उसे संसाररूपी कीचड़ से बाहर निकाला, कीचक जैसे दुराचारी का भी उद्धार किया। हम तो आपके सेवक हैं, आपकी भक्ति करते हैं, और मन से भक्तिपूर्वक आपका नाम जपते हैं।
आपके समान तीन लोक में न कोई हुआ और न होवेगा । द्यानतराय कहते हैं कि आप ही देवाधिदेव हैं, दयालु हैं, आप ही सुख प्रदान करनेवाले हैं।