हमारो कारज ऐसे होय आतम आतम पर पर जानैं, तीनौं संशय खोय ॥टेक॥अंत समाधिमरन करि तन तजि, होय शक्र सुरलोय ।विविध भोग उपभोग भोगवै, धरमतनों फल सोय ॥हमारो कारज ऐसे होय ॥१॥पूरी आयु विदेह भूप ह्वै, राज सम्पदा भोय ।कारण पंच लहै गहै दुद्धर, पंच महाव्रत जोय ॥हमारो कारज ऐसे होय ॥२॥तीन जोग थिर सह परीसह, आठ करम मल धोय ।'द्यानत' सुख अनन्त शिव विलसै, जनमैं मरै न कोय ॥हमारो कारज ऐसे होय ॥३॥
अर्थ : हे साधक ! हमारा कार्य इस प्रकार सिद्ध हो सकता है कि हम अपनी आत्मा को आत्मा जानें। इस आत्मा से भिन्न जो भी है वह दूसरा है, वह पर है, उसे पर जानें । उसमें संशय, विमोह व विभ्रम तनिक भी न करें अर्थात् स्व को 'स्व' और पर को 'पर' जानें।
अंत समय समाधिमरण करते हुए इस देह को छोड़ें और देवलोक में जाकर देवरूप में, इन्द्ररूप में अगला जन्म धारण करें जहाँ अनेक प्रकार के भोग व उपभोग उपलब्ध हैं उन्हें धर्म के फल रूप में भोग करें।
पंच महाव्रत के पालन व दुर्द्धर तप के फलरूप में, धर्म के फलरूप में ही विदेह क्षेत्र में राजा होकर राज-सम्पदा, भोग-सामग्री प्राप्त होती है। इन पंच महाव्रत व दुर्द्धर तप से मोक्ष के कारणरूप पाँच लब्धियाँ प्राप्त होती हैं।
मन, वचन, काय की चंचलता को रोककर स्थिर होवें तथा जो भी अन्य बाह्य परीषह आवें उनको समता व दृढ़तापूर्वक सहन करें; इस प्रकार अष्ट कर्मरूपी मैल को धोवें । द्यानतराय कहते हैं कि ऐसी ही क्रिया से कर्म-मल नष्ट होकर मोक्ष में अननपुगत रूप लक्ष्मी की प्राप्ति होती है अर्थात् जन्म-मरण नहीं होता।