तेरी कहाँ गई मतिमारी, जड़ से लगा रह्यो है प्रीत ।तू चेतन चिद्रूप यशस्वी, ज्ञाता दृष्टा परम तपस्वी,निज स्वरूप को भूल अभागे, कैसे बण्यो निचीत ॥तेरी कहाँ गई मतिमारी, जड़ से लगा रह्यो है प्रीत ॥१॥नश्वर काँच खिलौना काया, इन्द्र धनुष सम वैभव माया,मात तात दारा सुत जग सब है स्वारथ के मीत ॥तेरी कहाँ गई मतिमारी, जड़ से लगा रह्यो है प्रीत ॥२॥जल से भिन्न कमलवत् प्यारा, देह गेहवासी तू न्यारा,मृग तृष्णा में भटक रहा क्यों, तज अन्तर परतीत ॥तेरी कहाँ गई मतिमारी, जड़ से लगा रह्यो है प्रीत ॥३॥बचपन खोया सरस जवानी, वृद्ध हुआ झुकि कमर कबाणी,धरम साधना कर ले पलटी, कुटिल काल की नीत ॥तेरी कहाँ गई मतिमारी, जड़ से लगा रह्यो है प्रीत ॥४॥उत्तम कुल नर-देह निरोगी, पंचेन्द्रिय ज्ञान उपयोगी,मिला श्रेष्ठ 'सौभाग्य' जोड़ ले, निज आतम गुणरीत ॥तेरी कहाँ गई मतिमारी, जड़ से लगा रह्यो है प्रीत ॥५॥