पर्वराज पर्युषण आया दस धर्मों की ले माला । मिथ्यातम में दबी आत्मनिधि अब तो चेत परख लाला ॥टेक॥
तू अखंड अविनाशी चेतन ज्ञाता दृष्टा सिद्ध समान । रागद्वेष परपरणति कारण स्व सरूप को कर्यो न भान ॥ मोहजाल की भूल भुलैया समझ नरक सी है ज्वाला । मिथ्यातम में दबी आत्मनिधि अब तो चेत परख लाला ॥१॥
परम अहिंसक क्षमा भाव भर, तज दे मिथ्या मान गुमान । कपट कटारी दूर फेंक दे जो चाहे अपनो कल्याण ॥ सत्य शौच संयम तप अनुपम है अमृत भर पी प्याला । मिथ्यातम में दबी आत्मनिधि अब तो चेत परख लाला ॥२॥
परिग्रह त्याग ब्रह्म में रमजा वीतराग दर्शन गायो । चिंतामणी से काग उड़ा मत नरकुल उत्तम तू पायो ॥ शिवरमणी 'सौभाग्य' दिखा रही तुझ अनश्वर सुखशाला । मिथ्यातम में दबी आत्मनिधि अब तो चेत परख लाला ॥३॥