मेरी जीभ आठौं जाम, जपि-जपि ऋषभजिनिंदजी का नाम ॥टेक॥नगर अजुध्या उत्तम ठाम, जनमैं नाभि नृपति के धाम ॥१॥ सहस अठोत्तर अति अभिराम, लसत सुलच्छन लाजत काम ॥२॥करि थुति गान थके हरि राम, गनि न सके गणधर गुन ग्राम ॥३॥'भूधर' सार भजन परिनाम, अर सब खेल खेल के खांम ॥४॥
अर्थ : ओ मेरी जिह्वा (जीभ) ! तू आठों प्रहर अर्थात् दिन-रात सदैव श्री ऋषभ जिनेन्द्र के नाम का ही जपा कर।
शुभ अयोध्या नगरी में नाभिराजा के यहाँ उनका जन्म हुआ। एक सौ आठ सुलक्षणों से वे सुशोभित हैं, जिनको देखकर कामदेव भी लजाता है।
इन्द्र आदि भी जिनकी स्तुति करते थक गये पर स्तुति नहीं कर सके। गणधर भी उनके गुणों का पार नहीं पा सके, गुणों को गणना नहीं कर सके।
भूधर दास जी कहते है कि उनका भजन, उनका स्मरण ही सारयुक्त है ,फलदायक है. इसके अलावा सभी क्रियाएँ (खेल है) व्यर्थ हैं, निरर्थक - निरुपयोगी है ।