गरव नहिं कीजै रे, ऐ नर निपट गंवार ॥टेक॥झूठी काया झूठी माया, छाया ज्यों लखि लीजै रे ॥१ गरव...॥कै छिन सांझ सुहागरु जोबन, कै दिन जगमें जीजै रे ॥२ गरव...॥बेगा चेत विलम्ब तजो नर, बंध बढ़ै थिति छीजै रे ॥३ गरव...॥'भूधर' पलपल हो है भारी, ज्यों ज्यों कमरी भीजै रे ॥४ गरव...॥
अर्थ : मूर्ख मानव, तू अभिमान न कर!
शरीर का अहंकार और ऐश्वर्य का गर्व बिलकुल झूठा है। जिस प्रकार छाया का रूप सुन्दर होकर भी वह झूठा है-- कभी भी स्थिर रहनेवाला नहीं है, उसी प्रकार ऐश्वर्य भी चिर-संगी नहीं है।
ओरे मूर्ख, यह तेरा सौभाग्य और यौवन कितने क्षणों और सन्ध्याओं तक रहनेवाला है? और तू भी कितने दिन तक संसार में जीवित रहेगा? अरे अज्ञानी मानव, अभिमान मत कर!
रे मानव, जब जीवन, यौवन और सौभाग्य कुछ दिनों तक ही स्थिर रहनेवाला है तो तू इनके गर्व में चूर होकर क्यों कर्तव्य भुला रहा है? अरे, अब आलस्य छोड़ दे और तुरन्त ही सावधान हो जा। तू कर्तव्य पालन में जितनी देर करेगा, तेरा संसार उतना ही बढ़ता जाएगा और वर्तमान आयु हीन होती जाएगी। अरे अज्ञानी मानव, अहंकार मत कर!
रे मानव, जिस प्रकार कम्बल ज्यों-ज्यों भीगता जाता है, प्रत्येक क्षण उत्तरोत्तर रूप से भारी होता जाता है, उसी प्रकार तुम अपने कर्तव्य-पालन में जितना हो विलम्ब करोगे तुम्हारे कर्मों का बोझ प्रत्येक क्षण उतना ही दुर्वह होता जाएगा। इसलिए तू अब इस क्षण से हो कर्तव्यनिष्ठ बन जा और एक पल को भी देर न कर। रे अबोधतम मानव, अहंकार मत कर!