चरखा चलता नाहीं (रे) चरखा हुआ पुराना (रे) ॥पग खूंटे दो हालन लागे, उर मदरा खखराना ।छीदी हुई पांखड़ी पांसू, फिरै नहीं मनमाना ॥१॥रसना तकली ने बल खाया, सो अब कैसै खूटै ।शब्द-सूत सूधा नहिं निकसे, घड़ी-घड़ी पल-पल टूटै ॥२॥आयु मालका नहीं भरोसा, अंग चलाचल सारे ।रोज इलाज मरम्मत चाहे, वैद्य बढ़ई हारे ॥३॥नया चरखला रंगा-चंगा, सबका चित्त चुरावै ।पलटा वरन गये गुन अगले, अब देखैं नहिं भावै ॥४॥मोटा मही कातकर भाई!, कर अपना सुरझेरा ।अंत आग में इंर्धन होगा, 'भूधर' समझ सवेरा ॥५॥
अर्थ : इस भजन में कवि ने वृद्धावस्था का वर्णन किया है। इस शरीर को चरखे की उपमा दी गयी है।
प्रथम अन्तरे में पग खूंटे अर्थात 2 पैरों के बारे में लिखा है।
जीभ अति लोलुप हो गई है, उसपर कैसे लगाम लगाई जाय; इससे अच्छे शब्द नियलना बंद हो गए हैं, धीरे धीरे यह अपना काम करना बंद कर रही है ।
अब इसके चलने का कोई भरोसा नहीं रह गया है। इसे वैद्य-हकीमों के द्वारा मरम्मत की प्रतिदिन ज़रूरत पड़ने लगी है।
जब ये नया था तब सभी को अच्छा लगता था, सबका मन प्रसन्न करता था। अब यह सबको बुरा लगने लगा है।
स्वयं के लिए अधिक समय निकाल कर अपना काम बना लो क्योंकि अंत समय में तो यह आग में ही झोंका जाना है।