सो गुरुदेव हमारा है साधो ॥टेक॥जोग-अगनि मैं जो थिर राखैं, यह चित्त चंचल पारा है ॥करन-कुरंग खरे मदमाते, जप-तप खेत उजारा है।संजम-डोर-जोर वश कीने, ऐसा जान-विचारा है ॥सो...१॥जा लक्ष्मी को सब जग चाहै, दास हुआ जग सारा है ।सो प्रभु के चरनन की चेरी, देखो अचरज भारा है ॥सो...२॥लोभ-सरप के कहर जहर की, लहरि गई दुख टारा है।'भूधर' ता रिखि का शिख हूजे, तब कछु होय सुधारा है ॥सो...3॥
अर्थ : हे साधक, हमारा गुरु तो वह हो है जो पारे के समान चंचल चित्त को भी योग की अग्नि में स्थिर रखता है।
मदोन्मत्त (मद से उन्मत), इंद्रियरूपी चंचल हरिणों ने हमारे जप-तपरूपी खेत को उजाड़ दिया है। पर जिसने संयमरूपी डोर से बाँधकर उन्हें वश में किया है, ऐसा ज्ञान जिसे हुआ है, वह ज्ञानधारी ही हमारा गुरु है।
सारा जगत जिस लक्ष्मी को चाहता है, जिस लक्ष्मी का दास हुआ है वह लक्ष्मी भी उस प्रभु के चरणों की दासी है, यह बड़ा आश्चर्य है!
लोभरूपी सर्प के विष की घातक लहरों के दुःखों को जिसने टाल दिया हैं, नाश कर दिया है ऐसे गुरु का शिष्य होने पर ही कुछ सुधार होना, कल्याण होना, उद्धार होना संभव है।