अज्ञानी पाप धतूरा न बोय ।फल चाखन की बार भरै दृग, मर है मूरख रोय ॥टेक॥किंचित विषयनि के सुख कारण, दुर्लभ देह न खोय ।ऐसा अवसर फिर न मिलैगा, इस नींदड़ी मत सोय ॥अज्ञानी पाप धतूरा न बोय ॥१॥इस विरियां में धर्म-कल्प-तरु, सींचत स्याने लोय ।तू विष बोवन लागत तो सम, और अभागो न कोय ॥अज्ञानी पाप धतूरा न बोय ॥२॥जे जग में दुःखदायक बेरस, इस ही के फल सोय ।यों मन 'भूधर' जानिकै भाई, फिर क्यों भोंदू होय ॥अज्ञानी पाप धतूरा न बोय ॥३॥
अर्थ : अरे अज्ञानी, पापरूपी धतूरा न बो।
रे मूढ़ मानव, पापरूपी धतूरा को बोते समय तो तुझे कुछ नहीं होगा, परन्तु फल चखने के समय तू फूट-फूटकर रोएगा और जान तक खो देगा।
इन क्षणिक सुख देनेवाली विषय-वासनाओं के पीछे तू दुर्लभ मानव-पर्याय क्यों व्यर्थ खोये दे रहा है ? इस मनुष्य पर्याय की प्राप्ति का अवसर फिर तुझे कभी नहीं मिलनेवाला है। अरे अज्ञानी, पापरूपी धतूरा न बो।
अरे मूढ़, यह वह समय है जब सभी विवेकशील मानव धर्म-कल्पतरु का सिंचन करते हैं और अपने अजरामर पद की प्राप्ति के लिए दृढ़ता के साथ यत्नशील रहते हैं। और मानव, इस ही पुण्य-वेला में तू विष-बीज बो रहा है! सोच, तुझ-जैसा अभागा भी कोई संसार में होगा?
अरे अज्ञानी, संसार में प्राणियों की दुखद और रसहीन जितनी प्रवृत्तियाँ हैं वे सब इसी पापरूपी विष-बीज के परिणाम हैं। रे मानव, यह सब जानकर भी तू क्यों अनजान बन रहा है?