ऐसी समझ के सिर धूल ।धरम उपजन हेत हिंसा, आचरैं अघमूल ॥टेक॥छके मत-मद पान पीके, रहे मन में फूल ।आम चाखन चहैं भोंदू, बोय पेड़ बबूल ॥१॥देव रागी लालची गुरु, सेय सुखहित भूल ।धर्म नग की परख नाहीं, भ्रम हिंडोले झूल ॥२॥लाभ कारन रतन विराजै, परख को नहिं सूल ।करत इहि विधि वणिज 'भूधर', विनस जै है मूल ॥३॥
अर्थ : जो कोई धर्म-कार्य हेतु हिंसा का आचरण करता है, जिसने ऐसा किया है, तथा जो इसे उचित समझता है ऐसा आचरण, ऐसी समझ तिरस्कार करने योग्य है, यह तो पाप का मूलकारण है।
मदिरा (शराब) पीकर जो अपने मन में फूले नहीं समा रहे हैं, मदोन्मत हो रहे हैं, उनके परिणाम भले कैसे होंगे? जो आम खाना चाहे और पेड़ बबूल का बोये तो उसको आम कहाँ / कैसे मिलेंगे ? राग-द्वेष से युक्त देवों की, लोभ और लालच से भरे गुरुओं की (अर्थात् जो देव राग-द्वेषसहित हो, जो गुरु लालच और लोभ से भरा हो, उनको) अपने भले के लिए सेवा करना भूल है । इससे स्पष्ट है कि उसे धर्मरूपी रत्न की पहचान नहीं है और भ्रम के झूले में इधर-उधर डोल रहा है।
भूधरदासजी कहते हैं धन-लाभ के लिए रत्नों का व्यापार/वाणिज्य किया जाता है, पर जिसे रत्नों की पहचान नहीं है यदि वह व्यापार करेगा तो उसका तो मूल से ही नाश होना निश्चित है । अर्थात् धर्म के सिद्धान्तों को न जानकर विवेकहीन क्रियाओं को धार्मिक क्रिया मानकर करने से हानि ही होगी लाभ नहीं।