देखे देखे जगत के देव, राग-रिससौं भरे ॥काहू के संग कामिनि कोऊ, आयुधवान खरे ॥टेक॥अपने औगुन आप ही हो, प्रकट करैं उघरे ।तऊ अबूझ न बूझहिं देखो, जन मृग भोर परे ॥१॥आप भिखारी ह्वै कि नहीं हो, काके दलिद हरे ।चढ़ि पाथरकी नावपै कोई, सुनिये नाहिं तरे ॥२॥गुन अनन्त जा देवमें औ, ठारह दोष टरे ।'भूधर' ता प्रति भावसौं दोऊ, कर निज सीस धरे ॥३॥
अर्थ : मैंने जगत के अनेक देव देखे हैं जो राग-द्वेषसहित हैं, किसी के साथ स्त्री है तो कोई शास्त्र धारण किए हुए है। उनके दुर्गुण अपने आप ही प्रकट व प्रकाशित हैं, स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं, वे अबूझ हैं अर्थात् पूछने योग्य नहीं, ये बातें तो सर्वविदित हैं / मृग- समान भोले प्राणी, भोलेपन के कारण उनके चक्कर में पड़ जाते हैं पर भोर होते ही, ज्ञान होते ही सब प्रकट हो जाता है, दिखाई दे जाता हैं। __ जो स्वयं याचक है, दूसरों से माँगते हैं वे दूसरों के किसी दरिद्र के दुःख को कैसे दूर कर सकते हैं? पत्थर की नाव पर बैठकर कोई तैर सका है - यह आज तक नहीं सुना। जिस देव में अनन्त गुण हैं और जो अठारह दोषरहित हैं भूधरदास उन्हें भावसहित हाथ जोड़कर शिरोनति करते हैं, उन्हें मस्तक पर धारण करते हैं।