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पारस प्रभु को नाऊँ
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पारस प्रभु को नाऊँ, सार सुधारस जगत में ।
मैं वाकी बलि जाऊँ, अजर अमर पद मूल यह ॥

राजत उतंग अशोक तरुवर, पवन प्रेरित थरहरै ।
प्रभु निकट पाय प्रमोद नाटक, करत मानों मन हरै ।
तस फूल गुच्छन भ्रमर गुंजत, यही तान सुहावनी ।
सो जयो पार्श्व जिनेन्द्र पातकहरन जग चूड़ामनी ॥१॥

निज मरन देखि अनंग डरप्यो, सरन ढूंढत जग फिर्यो ।
कोई न राखे चोर प्रभु को, आय पुनि पायनि गिर्यो ।
यौं हार निज हथियार डारे, पुहुपवर्षा मिस भनी ।
सो जयो पार्श्व जिनेन्द्र पातकहरन जग चूड़ामनी ॥२॥

प्रभु अंग नील उत्तंग गिरितैं, वानि शुचि सरिता ढली ।
सो भेदि भ्रमगजदंत पर्वत, ज्ञान सागर मैं रली ।
नय सप्तभंग तरंग मंडित, पाप-ताप विध्वंसनी।
सो जयो पार्श्व जिनेन्द्र पातकहरन जग चूड़ामनी ॥३॥

चंद्रार्चिचयछवि चारु चंचल, चमरवृंद सुहावने ।
ढोलै निरन्तर यक्षनायक, कहत क्यों उपमा बनै ।
यह नीलगिरि के शिखर मानों, मेघझरी लागी घनी ।
सो जयो पार्श्व जिनेन्द्र पातकहरन जग चूड़ामनी ॥४॥

हीरा जवाहिर खचित्त बहुविधि, हेम आसन राजये ।
तहँ जगत जनमनहरन प्रभु तन, नील वरन विराजये ।
यह जटिल वारिज मध्य मानौं, नील-मणिकलिका बनी ।
सो जयो पार्श्व जिनेन्द्र पातकहरन जग चूड़ामनी ॥५॥

जगजीत मोह महान जोधा, जगत में पटहा दियो।
सो शुकल ध्यान-कृपानबल जिन, निकट वैरी वश कियो।
ये बजत विजय निशान दुंदुभि, जीत सूचै प्रभु तनी ।
सो जयो पार्श्व जिनेन्द्र पातकहरन जग चूड़ामनी ॥६॥

छद्मस्थ पद मैं प्रथम दर्शन, ज्ञान चरित आदरे ।
अब तीन तेई छत्र छलसौं, करत छाया छवि भरे ।
अति धवल रूप अनूप उन्नत, सोमबिंब प्रभा-हनी ।
सो जयो पार्श्व जिनेन्द्र पातकहरन जग चूड़ामनी ॥७॥

दुति देखि जाकी चन्द सरमै, तेजसों रवि लाजई ।
तव प्रभा-मण्डल जोग जग मै, कौन उपमा छाजई ।
इत्यादि अतुल विभूति मण्डित, सोहिये त्रिभुवन धनी ।
सो जयो पार्श्व जिनेन्द्र पातकहरन जग चूड़ामनी ॥८॥

या अगम महिमा सिंधु साहब, शक्र पार न पावहीं ।
तजि हासमय तुम दास 'भूधर' भगतिवश यश गावहीं ।
अब होउ भव-भव स्वामि मेरे, मैं सदा सेवक रहौ ।
कर जोरि यह वरदान मांगौं, मोखपद जावत लहौं ।
सो जयो पार्श्व जिनेन्द्र पातकहरन जग चूड़ामनी ॥९॥



अर्थ : मैं पार्श्व प्रभु को नमन करता हूँ, जो इस जगत में अमृत रस के सार हैं। यह ही जन्म-जरारहित, अमरपद अर्थात् मोक्षपद प्राप्ति का मूल साधन है, इसलिए मैं उनको बलि जाता हूँ अर्थात् उनके प्रति समर्पित हूँ।
अशोक - ऊँचा अशोक वृक्ष, पवन के झकोरों के कारण झूमता हुआ सुशोभित हो रहा है मानो प्रभु का सामीप्य पाकर वह प्रमुदित हो रहा है। उसके फूलों के गच्छों पर भ्रमर झूम रहे हैं और गुंजन कर रहे हैं, उनका गुंजन मानो कह रहा है कि ऐसे पापनाशक जगतश्रेष्ठ श्री पावं जिनेन्द्र की जय हो, वे सदा जयवंत रहें।
पुष्प - कामदेव अपनी मृत्यु के भय से सारे जगत में शरण के लिए भागता फिरा, परन्तु वह प्रभु की दृष्टि में चोर था इसलिए उसे कहीं शरण नहीं मिली और अन्त में वह अपनी हार स्वीकार कर प्रभु के, आपके चरणों में आ गिरा है। उसने अपने हथियार 'पुष्पशर' प्रभु के चरणों में डाल दिए। यह पुष्प-वृष्टि मानो उसी का प्रतीक है।
दिव्यध्वनि - प्रभु का नीलवर्ण गात ऊँचे पर्वत के समान है जिससे वाणीरूपी पवित्र नदी बह निकली है, जो दंतरूपी पर्वत-खंडों से निकल कर, अज्ञानरूपी हाथी का भेदन-नाश करती हुई ज्ञान के समुद्र में आकर समा जाती है। ऐसे सप्तभंगी तरंगों से शोभित वह वाणी पापरूपी तपन का नाश करनेवाली है।
चंवर - चंचल चन्द्र-समूह द्वारा वंदित आपकी सुंदर छवि पर चंवर, जिन्हें 64 यक्षगण निरंतर ढोर रहे हैं, अनुपम है अर्थात् उसकी कोई अन्य उपमा नहीं दी जा सकती, वे ऐसे सुहावने लग रहे हैं मानों नीले पर्वत के शिखर पर सघन मेघ की झरी-निर्झर प्रपातरूप में बह रही हो।
सिंहासन - सुवर्ण के रत्नजड़ित सिंहासन पर जगत-जन के मन को हरनेवाले प्रभु की नील (हरित)-वर्ण देह आसीन है, जो ऐसी सुशोभित हो रही है मानो घने दुरूह बादलों के बीच नीलमणि का एक भाग ही हो।
दुंदुभि - मोहरूपी महान योद्धा ने सारे जगत को अपने वश में कर लोक . में अपनी विजय का डंका/नगाड़ा बजा रखा है, सो आपने अपनी शुक्ल ध्यानरूपी खड्ग (तलवार) से उस विकट व समीप रहनेवाले वैरी को सहज ही वश में कर लिया। इसी विजय की सूचना का प्रतीक यह दुंदुभि-वादन है।
तीन छत्र - छग्रस्थ अवस्था में ज्ञान और चारित्र के श्रेष्ठ साधन के फलस्वरूप जो केवलज्ञान होते ही तीन छन्त्र-छाया के प्रयोजन से प्रकट हुए हैं, वे श्वेत सुन्दर व चन्द्रमा की कांति को भी पराजित करनेवाले हैं। प्रभामण्डल - सरोवर में पड़ रही आपकी परछाई के समक्ष चन्द्रमा की द्युति (कांति) और सूर्य का तेज भी फीका है, उस प्रभामण्डल के योग्य जगत में कोई अन्य उपमा ही नहीं है। इस प्रकार अनेक अपरिमित विभूतियों से त्रिभुवनधनी, आप सुशोभित हैं।
हे सागरतुल्य स्वामी ! शक्र (इन्द्र) भी आपके गुणों का पार पाने में असमर्थ है। उपहास होने का भय छोड़कर आपका यह दास भक्तिवश आपका यशगान कर रहा है। मैं भूधरदास आपसे यही वरदान माँगता हूँ कि जब तक मुझे मोक्ष की प्राप्ति न हो तब तक आप भव-भव में मेरे स्वामी रहें और मैं आपका सेवक। प्रस्तुत भजन में तीर्थकर पार्श्वनाथ के अष्ट प्रातिहार्यों का वर्णन किया गया है।